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________________ १५८ ] नाट्यदर्पणम् . का० ५५, सू० ८७ तात ! त्वां श्रावयेऽहं न खलु भुजबलश्लाघया नापि दर्पात् पुत्रैः पौत्रैश्च कर्मण्यतिगुरुणि कृते तात ! साक्षी त्वमेव ॥” इति । (११) अथ मार्गः [सूत्र ८७]--मार्गस्तचार्थशंसनम् । परमार्थस्य वचनं सामान्ये नोच्यमानं प्रकतार्थेन यत् सम्बध्यते तन्मार्गः। यथा मुद्राराक्षसे "राजा-[प्रविश्य स्वगतमाह] राज्यं हि नाम राजधर्मानुवृत्तिदुःखितस्य • नृपतेर्महदप्रीतिस्थानम् । कुतः-- परार्थानुष्ठाने जड़यति नृपं स्वार्थपरता, परित्यक्तस्वार्थी नियतमयथार्थः क्षितिपतिः । परार्थश्चेत् स्वार्थादभिमततरो हन्त बलवान, परायत्तः प्रीतेः कथमिव रसं वेत्ति पुरुषः ।। अपि च दुराराध्या लक्ष्मीरात्मवद्भी राजभिः । कुतः तिक्तादुद्विजते मृदो परिभवत्रामान सन्तिष्ठते, मूर्ख द्वेष्टि न गच्छति प्रणयितामत्यन्त विद्वत्स्वपि । शूरेभ्योऽभ्यधिक बिभेत्युपहसत्येकान्त भीरूर हो, श्रीलब्धप्रमरेव वेशवनिता दुःखोपचर्या भृशम् ॥” इति । सब समाचार प्रापको इसलिए सुना रहा हूँ कि हे तात ! पुत्रों और पौत्रों के द्वारा किए जाने वाले किसी भी बड़े कार्य में आप ही साक्षी हो सकते हैं इसलिए यह सब समाचार प्रापको सुनाया है] अपने भुजबलकी प्रशंसाकेलिए अथवा अभिमानवश होकर नहीं [सुनाया है । भीमसेनका यह सोपालम्भ वचन इस लक्षणसे 'अधिबल' अङ्गका उदाहरण होता है। (११) मार्ग अब 'मार्ग' [नामक गर्भसन्धिके ग्यारहवें अंगका निरूपण करते हैं][सूत्र ८६]-तत्त्वार्थको कथन करना.'मार्ग' [कहलाता है। दास्तविक बातका सामान्य रूपसे कथन होनेपर भी प्रकृत प्रकरणके साथ [उसके विशेष रूपसे सम्बद्ध होनेपर 'मार्ग' नामक अंग कहलाता है। जैसे मुद्राराक्षसमें "राजा-[प्रविष्ट होकर स्वगत कहते हैं] राजधर्मका पालन करनेके कारण राजाके लिए राज्य शासनका सञ्चालन] बड़े सङ्कटका कारण होता है । क्योंकि---- [यदि राजा अपने स्वार्थको प्रधानता देता है तो रवार्थपरता राजाको दूसरोंका कार्य करनेसे रोकती है। [यदि दूसरेके लिए] अपने रवार्थको छोड़ देता है तो निश्चय ही राजा [अयथार्थः] राजा नहीं रहता है। और यदि स्वार्थको अपेक्षा परार्थताको प्रधानता दी जाय तो दूसरेके अधीन हो जानेपर बलवान् [राजा भी आनन्द का भोग कैसे कर सकता है। और जितेन्द्रिय राजाओं के द्वारा भी लक्ष्मीको पाराधना बड़ी कठिन है। क्योंकि [अत्यन्त तीक्षण प्रकृति के राजा] से [लक्ष्मी] घबड़ाती है और कोमल प्रकृतिके पास [दूसरों के द्वारा] अपमानित होनेके भयसे नहीं टिकती है । मूल्से द्वेष करती है, और अधिक विद्वानोंके पास भी नहीं रहती है। शूरोंसे भी बड़ा डरती है, और अत्यन्त भीरुषोंका भी उपहास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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