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का० ५५, सू०८८ ] प्रथमो विवेकः
[ १५६ यथा वा रघुविलासे चतुर्थेऽङ्क ----रावण:---[सविषादम् ] "लंकेश्वरे त्रिदशदर्पहरे विरागो, रागरंतु. काननचरे जनकात्मजायाः।।
सौन्दर्य-विक्रम-कला-विभवानपेक्षः म्यां विचारविमुखः खलु कोऽपि पन्धाः ॥"
एतत् तत्त्वार्थकथनं सामान्येनोक्तमपि प्रकृतेन सम्बध्यत इति । (१२) अथ असत्याहरणम्
[सूत्र ८८]--असत्याहरणं छन । यथा मालविकाग्निमित्रे यज्ञोपवीतमद्धांगुष्ठो विदृषकः। "विदूपक:---[प्रविश्य ससम्भ्रममाह ! परित्तायदु परित्तायदु भवं ।
[परित्रायतां परित्रायतां भवान । इति संस्कृतम् । राजा-किमेतत ? विपक:-भो! सापेग म्हि दलो।
[भो ! मर्पणाम्मि दृष्टः । इनि संस्कृतम ] ।
[मर्व विदूषकं दृष्ट्वा विषण्णाः ।] राजा-कष्ट क्व भवान् परिभ्रान्तः ?
विदूषकः-देवं पेक्खिस्सं ति प्राचारपुप्फरस कारणा पमदवणं गदु म्हि । तहिं च असोयत्थवगरस पसारिदे अम्गहत्थे कोडरविरिणग्गदेण सापरूपेण कालेण मिइ लंभिदो। इमाणि दुवेदाढावणाणि। करती है । इस प्रकार लब्ध-प्रसरा प्रौढ़ा वेश्याके समान लक्ष्मी बड़ी कठिनतासे वशमें आती है।
यहाँ तत्त्वार्थका प्रकृतसे सम्बद्ध रूपमें कथन किया गया है इसलिए यह 'मार्ग' नामक अंगका उदाहरण है । अथवां जैसे रघुविलासके चतुर्थ अङ्क में रावण विषाद-पूर्वक [कहता है] -
देवताओंके भी दर्पका अपहरण करनेवाले लङ्काके अधीश्वर [मुझ रावण के प्रति सीताका वैराग्य है [अर्थात् मुझ रावणको तो नहीं चाहती है और वन-वनमें भटकनेवाले [रामचन्द्र के प्रति राग है। निश्चय ही प्रेमका मार्ग सौन्दर्य, विक्रम, कला और वैभवकी उपेक्षा करनेवाला और अविचारशील होता होता है।
यह यथार्थ बातका कथन सामान्य रूपसे उक्त होनेपर भी प्रकृतसे सम्बद्ध है । (१२) असत्या हरण
अब असत्याहरण [नामक गर्भसन्धिके ग्यारहवें अङ्गका निरूपण करते हैं--- [सूत्र ८७]-छल 'असत्याहरण' कहलाता है।
जसे मालविकाग्निमित्र यज्ञोपवीतसे अंगूठे को बांधे हुए विदुषक [आकर घबड़ाते हुए कहता है ---] बचाइए आप मुझे बचाइए । राजा---अरे यह क्या हुया ?
विदूषकः-अरे साँपने डस लिया है। [सब विदूषकको देखकर खिन्न हो जाते हैं । राजा---तुम कहाँ घूस रहे थे ?
विदूषक -- तुम्हारे पास ला रहा था इसलिए प्राचारार्थ पुष्प लेने के लिए प्रमववनमें गया था। वहाँ अशोकका गुच्छा लेने के लिए हाथ बढ़ाते ही कालके समान आपने पकड़ लिया। दे दो दाँत [लगे] हैं।
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