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________________ का० ५५, सू०८६ ] प्रथमो विवेकः [ १५७ ___ इति पाठानन्तरं राज्ञा वासवदत्ताया मुखोद्घाटने प्रत्यभिज्ञानम् । अत्र सागरिकावेष धारयन्ती विदूषकबुद्धिदौर्बल्याद् वासवदत्ता राजानमभिसन्धत्ते । कपटस्यान्थाभावमन्ये अधिबलमाहुः । यथा रत्नावल्याम्"राजा-एवमपि प्रत्यक्षदृष्टव्यलीकः किञ्चिद्विज्ञापयामि आताम्रतामपनयामि विलक्ष एषः, लाक्षाकृतां चरणयोस्तव देवि ! मूर्ना । कोपोपरागजनितां तु मुखेन्दुबिम्बे हतुक्षमो यदि परं करुणा मयि स्यात् ।। इति । अत्र वासवदत्तां प्रति राज्ञो वञ्चनं विफलं जातम् । एके तु सोपालम्भं वाक्यमधिबलमिच्छन्ति । यथा वेणीसंहारे पञ्चमेऽङ्क धृतराष्ट्रमुद्दिश्य "भीमसेनः-अलमिदानी मन्युना। कृष्टा केशेषु कृष्णा नृपसदसि वधूः पाण्डवानां नृपैयः सर्वे ते क्रोधवह्नौ कृशशलभकुलावज्ञया येन दग्धाः । चन्द्रमा [माकाशमें] उदय हो रहा है। यदि [उसको] अमृतका गर्व हो [और उसीके कारण तुम्हारे मुखके सामने उदय होनेका दुस्साहस कर रहा हो तो वह [अमृत] भी तो तुम्हारे प्रधर-बिम्बमें विद्यमान ही है। इस पाठके बाव राजाके द्वारा [सागरिका समझी हुई] वासवदत्ताके मुखको खोलनेपर वासवदत्ताका पहिचानना। यहां सागरिकाका वेष धारण किए हुए वासवदत्ता विदूषककी मूर्खता [बुद्धिदौर्बल्यात] से राजाको धोखेमें डाल देती है। दूसरे लोग कपटके अन्यथाभाव [ अर्थात परिवर्तन ] को 'अधिबल' कहते हैं। जैसे रत्नावलीमें [इस ऊपरवाली घटनाके बाद हो __ "राजा—इस प्रकार अपराधके प्रत्यक्ष देख लिए जानेपर भी कुछ प्रार्थना करना चाहता हूँ [और रह प्रार्थना यह है कि]. हे देवि ! [अपने सागरिका-प्रेम रूप इस अपराधके कारण] लज्जित मैं लाक्षा द्वारा सम्पादितको हुई तुम्हारे चरणोंको रक्तताको अपने सिरसे दूर कर ही रहा हूँ [अर्थात तुम्हारे चरणोंपर सिर रखकर अपने इस अपराधकी क्षमा मांग रहा हूँ किन्तु] यदि मेरे ऊपर अत्यन्त दया हो जाय तो कोपके कारण उत्पन्न हुई मुख-रूप चन्द्रमाको रक्तताको भी [चुम्बनादि द्वारा दूर करने में समर्थ हो सकता हूँ।" यहाँ वासवदत्ताके प्रति [खुशामद द्वारा] धोखा देनेका राजाका प्रयत्न विफल हो गया। [अर्थात् वासवदत्ता उसकी बातोंसे प्रसन्न नहीं हुई । कुछ लोग उपालम्भ युक्त वाक्यको 'अधिबल' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारके पांचवें प्रथमें धृतराष्ट्रको लक्ष्यमें रखकर भीमसेन [कहते हैं कि]-- भीमसेन-प्रब दुःख करनेकी मावश्यकता नहीं है। जिन राजामोंने पाण्डवोंकी वधू वौपदीके बालोंको पकड़कर राज-सभामें घसीटा था उन सबको क्षुद्र पतङ्गके समान जिसने अपनी क्रोधाग्निमें भस्मसात् कर दिया वह मैं [यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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