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नाट्यदर्पणम् . [ का० ५५, सू०८६ अथवा बीजस्य हृदयभूमिनिगूढत्वादभिप्रायस्य बहिष्करणमाक्षेपः। यथा रत्नावल्यां, वासवदत्तायामेव सागरिकेति राज्ञा विदूषकेण च परिगृहीतायां तदुक्तिषु"प्रिये सागरिके!
शीतांशुमुखमुत्पले तव दृशौ पद्मानुकारौ करो, रम्भागर्भनिभं तवोरुयुग्लं बाहू मृणालोपमो। इत्याह्लादकराखिलाङ्गि ! रभसा निःशंकमालिङ्गय माम् ,
अङ्गानि त्वमनङ्गतापविधुराण्येाहि निर्वापय ।।" - इत्यादिषुराज्ञा स्वाभिप्रायबहिष्प्रकाशनम्। केचिदेतदङ्गन मन्यन्ते इति।।५४|| (१०) अथाधिबलम
[सूत्र ८६]-अधिबलं बलाधिक्यम् । परस्परवश्वनप्रवृत्तयोर्यस्य बुद्धिसाहायादिघलाधिक्येन यत्कर्म इतरमभिसन्धातु समर्थ तत्कर्म बलविषये अधिकबलयोगादधिबलम् । यथा रत्नावल्याम्
"किं पद्मस्य रुचि न हन्ति नयनानन्दं विधत्ते न वा, वृद्धिं वा झषकेतनस्य कुरुते नालोकमात्रेण किम् ? वक्त्रेन्दौ तव सत्ययं यदपरः शीतांशुरभ्युद्गतो,
दर्पः स्यादमृतेन चेदिह तदप्य स्त्येव बिम्बाधरे ।।" अथवा बीज अर्थात् हृदय रूप भूमिसे छिपे हुए अभिप्रायका बाहर प्रकाशित करना 'पाक्षेप' [कहलाता है। जैसे रत्नावसीमें राजा तथा विदूषकके द्वारा वासवदत्ताको ही सागरिका समझ लेनेपर उनकी उक्तियों में [राजा कहता है]---
"प्रिये सागरिके !
तुम्हारा मुख चन्द्रमा के समान], तुम्हारे नेत्र नील-कमल रूप, तुम्हारे हाथ कमलके सदृश, तुम्हारी दोनों जाँघे कदलीके भीतरी भागके समान, तुम्हारी बाहुएँ मृणालके तुल्य हैं। इस प्रकार सर्वाङ्गोंसे पालादकारिणि [हे प्रिये] ! प्रायो, प्रायो, जल्दीसे निशङ्क भावसे गाढ़ालिङ्गन द्वारा कामावेगसे सन्तप्त हुए मेरे अङ्गोंको शान्त करो।"
इत्यादिमें राजा द्वारा अपने अभिप्रायका प्रकाशन किया गया है। (१०) अधिबल
अब [गर्भसन्धिके] 'अधिबल' [नामक दशम अङ्गका निरूपण करते हैं][सूत्र ८६]-बलके प्राधिक्यको 'अधिबल' कहते हैं ।
एक-दूसरेको धोखा देनेमें लगे हुए दो व्यक्तियोंमें बुद्धि अथवा सहायकों ग्रादिके बलके प्राधिक्यके कारण जिसका कार्य दूसरेको धोखा देने में समर्थ हो जाता है उसका वह कार्य बलादिके विषयमें अधिक बल सम्पन्न होनेसे 'अधिबल' [नामक अङ्ग कहलाता है ।
जैसे रत्नावलीमें
क्या [तुम्हारा मुख चन्द्रमाके समान कमलोंको कान्तिको नष्ट नहीं करता है ? अथवा क्या [चन्द्रमाके समान हो] नेत्रोंको प्रानन्द प्रदान नहीं करता है ? अथवा दर्शनमात्रसे ही [चन्द्रमाके समान तुम्हारा मुख झषकेतन प्रर्थात् ] कामको नहीं बढ़ाता है जो यह दूसरा
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