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________________ का० १०६, सू० १५६ ] तृतीयो विवेकः । [ २८३ अत्र नाट्य-आमुखयोः सम्बन्धनार्थ कविना भाविप्रवेशस्य पात्रस्य युक्त्या नामग्रहणम् । पूर्वत्र समानविशेषणबलान्नामागतमित्यनयोविशेष इति । एषां च नाट्यपात्रप्रवेशप्रकाराणामन्यतम एवैकश्चमत्कारी निबन्धनीयः। अन्यथा पात्रप्रवेशग्रंथबाहुल्येन प्रस्तुतार्थविधातः स्यादिति । शब्दव्यापारबाहुल्याच्च भारत्यंशभूतत्वमस्य । ___एवं प्ररोचनायाः पूर्वरङ्गाङ्गभूताया अपीति । पात्रप्रवेशस्य पूर्वो माग श्रामुखम्। उत्तरः पुनर्नाटयमिति ॥ अथ प्ररोचनां व्याचष्टे[सूत्र १५६]-पूर्वरङ्ग गुणस्तुत्या सम्योन्मुख्य प्ररोचना ॥[४]१०६॥ . पूर्व नाट्यात् प्रथम, गीत-ताल-वाद्य-नृत्तानि नाट्यादिकं च पाठ्यं व्यस्तं समस्तं च प्रयुज्यते यत्र रङ्ग रजनाहेतौ नाट्यशालायां स पूर्वरङ्गः। अस्य च पूर्वरङ्गस्य प्रत्याहारादीनि आसारितान्तानि नव अन्तर्जवनिक, गीतकादीनि प्ररोचनान्तानि च दश बहिर्जवनिक अङ्गानि प्रयोज्यानि पूर्वाचायैर्लक्षितानि । अस्माभिस्तु स्वतो लोक ___ इस [उदाहरण] में नाट्य तथा प्रामुखका सम्बन्ध जोड़ने के लिए कविने प्रागे होने वाले पात्रके प्रवेशके लिए युक्तिपूर्वक [दुष्यन्तके] नामका ग्रहण किया है [अतः यह माह्वान द्वारा पात्रप्रवेशका उदाहरण है] पहिले ['प्रासादित प्रकट निर्मलचन्द्रहास' प्रादि उदाहरण में] तो समान विशेषरणोंके बलसे नाम प्राप्त हो जाता है [भुख्यरूपसे उसमें समयका ही वर्णन है । किन्तु इसमें मुख्य रूपसे दुष्यन्तके नाम ही कथन है] यह इन दोनों उदाहरणोंका पात्रप्रवेशके इन [चार] प्रकारों में से किसी एक ही चमत्कार-जनक प्रकारका प्रवलम्बन करना चाहिए। अन्यथा [सब प्रकारोंका अवलम्बन करनेपर तो] पात्रप्रवेश विषयक ग्रंथका विस्तार हो जाने से प्रस्तुत विषयमें विघ्न पड़ेगा। इस [प्रामुख] में शब्द-व्यापारको प्रचुरता होनेके कारण यह भारती वृत्तिका अंशभूत है। इसी प्रकार पूर्वरङ्गको प्रङ्गभूत प्ररोचनामें भी [शब्द-व्यापारके बहुल होनेसे भारतीय वृत्तिका पंगत्वहै। [मुख्य पात्रके प्रवेशके पहिलेका भाग 'प्रामुख' [कहलाता है मौर [पात्रप्रवेशके] बादका भाग नाट्य [कहलाता है। प्ररोचना निरूपणअब [भारतीय वृत्तिसे सम्बद्ध] 'प्ररोचना' की व्याख्या करते हैं [सूत्र १५६ }----पूर्वरङ्ग में [कवि, नाट्य, सूत्रधार आदि गुणोंकी स्तुति द्वारा सभ्यों को [नाट्य दर्शनकेलिए] उन्मुख करना 'प्ररोचना' [कहलाती है । [४] १०६ । [पहिले कारिकामें पाए हुए पूर्वरङ्ग शब्दका निर्वचन दिखलाते हैं] नाट्यके पहिले गीत, वाद्य, नृत्य नाट्यादि और पाठ्यका अलग-अलग प्रथवा मिलाकर जिस [भाग में रंग प्रर्थात् रञ्जनाके कारणभूत नाट्यशालामें प्रयोग किया जाता है वह पूर्वरङ्ग कहलाता है। इस पूर्वरङ्गके 'प्रत्याहार' से लेकर 'प्रासारित' पर्यन्त नौ जवनिकाके भीतर, और गीतकादिसे लेकर प्ररोचना पर्यन्त दश जवनिकाके बाहर किए जानेवाले अंगोंके लक्षण पूर्व प्राचार्यों ने किए हैं। हमने तो उनके १ स्वतः लोकसिद्ध होनेका कारण, २ उनके वर्णनकमके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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