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________________ २८४ “नाट्यदर्पणम् [ का० १०७, सू० १५६ प्रसिद्धत्वात् , तन्न्यासक्रमस्य निष्फलत्वाद्, विविधदेवतापरितोषरूपस्य तत्फलस्य च श्रद्धालुप्रतारणमात्रत्वादुपेक्षितानि । प्ररोचना तु पूर्वरङ्गांगभूतापि नाट्य प्रवृत्ती प्रधानमिति लक्ष्यते। . तत्र पूर्वरङ्गे गुणस्तुत्या प्रस्तुतप्रबन्धार्थस्य प्रीत्यादिहेतुत्वप्रशंसनेन सामाजिकानां श्रवणावलोकनोत्साहोत्पादनं प्रकृतोऽर्थः प्रकर्षण रोच्यते उपादेयतया ध्रियतेऽनयेति प्ररोचना । यथा क्षीरस्वामिविरचिते अभिनवराघवे"स्थापकः - [सहर्षम्] आर्ये ! चिरस्य स्मृतम् । अस्त्येव राघवमहीनकथापवित्रं, काव्यं प्रबन्धघटनाप्रथितप्रथिम्नः । भट्टन्दुराजचरणाब्जमधुव्रतस्य, क्षीरस्य नाटकमनन्यसमानसारम् ।।" यथा यथा वा रघुविलासे "सीतां काननतो जहार विहितव्याजः पुरा रावण स्तं व्यापाद्य रणेन तां पुनरथो रामः समानीतवान् । निष्फल होनेके कारण, और ३ विविध देवताओंको प्रसन्न करने रूप उनके फलके केवल भवानुमोंको धोखा देने मात्र वाला होनेसे, उनकी उपेक्षा कर दी है। [पूर्वरङ्गके उन १६ अंगोंमेंसे] 'प्ररोचना' तो पूर्वरंगका अंग होनेपर भी नाट्यमें प्रवृत्ति कराने में मुख्य है इसलिए उसका लक्षण [हम भी] कर रहे हैं। - उस पूर्वरंग [के १६ अंगों में, गुरणोंको स्तुति द्वारा प्रस्तुत प्रबन्धके अर्थको आनन्द प्रादिके जनक रूपमें प्रशंसा करके सामाजिकोंमें उसके देखनेका उत्साह उत्पन्न करनेकेलिए प्रकृत प्रर्थ जिसके द्वारा [प्रकर्षेण रोच्यते] अत्यन्त रोचक बनाया जाता है अर्थात् उपादेय सिद्ध किया जाता है वह 'प्ररोचना' [कहलाती है। जैसे क्षीरस्वामी विरचित अभिनवराघवमें"स्थापक---[सहर्ष] प्रायें ! बड़ी देर बाद याद प्राई रामचन्द्रको परमोत्कृष्ट कथासे पवित्र, और नाटक रचनामें प्रसिद्ध सामर्थ्य वाले, भट्ट इन्दुराजके चरणकमलोंके चञ्चरीक, क्षीरस्वामीका प्रद्वितीय महत्त्व वाला [मभिनव राघव नामक काव्य अर्थात] नाटक तो विद्यमान है ही [फिर चिन्ता किस बातकी है। सामाजिकोंको प्रसन्न करनेके लिए आज हम लोग उसी अद्वितीय नाटकका अभिनय प्रस्तुत कर सकते हैं।" इसमें रामचन्द्र के चरित्र और क्षीरस्वामीको नाटक-रचना-सामर्थ्यादिको प्रशंसा द्वारा सामाजिकोंमें नाटक-दर्शनका उत्साह उत्पन्न करनेका यत्न किया गया है इसलिए यह पर्वरंग की अंगभूत प्ररोचना' का उदाहरण है। अथवा जैसे रघुविलासमें "पूर्वकालमें छल करके रावण सीताको वनसे हरण कर ले गया था, उसको मारकर रामचन्द्र फिर उसको छुड़ाकर लाए थे । कवियोंको सूक्ति रूप मौक्तिक मएियोंके [उत्पादक के लिए स्वाति जलके समान तथा भु, भुवः, स्वः तीनों लोकोंको मोहित करने वाले मोहन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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