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________________ का० १०७, सू० १६० ] तृतीयो विवेकः [ २८५ एतस्मै कविसूक्तिमौक्तिकमणिस्वात्यम्भसे भूर्भुवः स्वामोहनकार्मणाय सुकथारत्नाय नित्यं नमः ॥ यथा वा नलविलासे "कविः काव्ये रामःसरसवचसामेकवतार्नलस्येदं हृद्य किमपि चरितं धीरललितम् । समादिष्टो नाट्ये निखिलनटमुद्रापटुरहं, प्रसन्नः सभ्यानां कटरि ! भगवानद्य स विधिः ॥” इति । इयं प्ररोचना पूर्वरङ्गात् प्रथमं पश्चाच्च निबध्यते । निबन्धे चास्या नावश्यम्भावनियम इति ॥ [४] । १०६॥ अथोद्देशप्राप्तां सात्त्वती लक्षयति-- [सूत्र १६०]-सात्वतो सत्त्व-वागङ्गाभिनेयं कर्म मानसम् । _ सार्जवाधर्ष-मुद्-धैर्य-रौद्र-वीर-शमाद्भुतम् ॥[५]१०७॥ कमके समान [रामायण की इस सुन्दर कथारत्नको नमस्कार है। इसमें कथा भागकी प्रशंसा द्वारा उस कथाके प्राधारपर विरचित 'रघुविलास' नाटकके देखने के लिए सामाजिकोंको प्रोत्साहित करनेका यत्न किया गया है । अथवा जैसे नलविलासमें “[इस नलविलास नामक नाटकका निर्माता सरस वचनोंका निधान रामचन्द्र इस काव्यका [निर्माता] कवि है, नलका मनोहर धीरललित और अद्भुत चरित्र [इस काव्यका वर्ण्य विषय है, और समस्त नाट्य कलानोंमें निपुण मुझको नाट्य करनेकी प्राज्ञा मिली है, [इससे सिद्ध होता है कि हे सुन्दर कटि वाली [प्रायें ] ! आज भगवान् सम्योंके ऊपर प्रसन्न हो रहे हैं।" इसमें ग्रन्थकारने अपने बनाए हुए नवविलासकी 'प्ररोचना'को उद्धत किया है। इस प्ररोचना भागमें कविकी भी प्रशंसा की गई है। नाटकके प्राधारभूत पाख्यान-वस्तु, और उसका अभिनय करने वाले नटको भी प्रशंसा की गई है। इन सबको प्रशंसा द्वारा सामा. जिकों में इस नाटकके देखनेके लिए उत्साह एवं अभिरुचि उत्पन्न करनेका यत्न किया गया है। इसलिए यह भी प्ररोचनाका उदाहरण है। यह प्ररोचचना पूर्वरंगके पहिले और पीछे. [दोनों रूपोंमें] निबद्ध की जा सकती है। और इसके रखे जाने का कोई प्रावश्यक नियम नहीं है। [अर्थात् यह प्रावश्यक नहीं है कि प्रत्येक नाटकमें प्ररोचना अवश्य ही रखी जाए। कवि इस विषयमें स्वतन्त्र है। वह चाहे तो प्ररोचना रखे चाहे न रखे। यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है फिर भी अधिकांश नाटकोंमें 'प्ररोचना' पाई हो जाती है ॥ १०६ ॥ [४]। . २ सात्वती वृत्तिका निरूपण अब उद्देशक्रमसे प्राप्त सात्वती [वृत्ति का लक्षण करते हैं [सूत्र १६०]-मानसिक, वाचिक तथा कायिक अभिनयोंसे सूचित, प्रार्जव, गटफटकार, [प्राधर्ष] हर्ष और धयंसे युक्त, तथा रौद्र, वीर, शान्त एवं प्रभुत रसोंसे सम्बद्ध मानस व्यापार 'सात्वती' वृत्ति कहलाता है । [५] १०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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