________________
२८६ ]
नाट्यदर्पणम्
[ का० १०७, सू० १६०
सत् सत्त्वं प्रकाशः, तद्यत्रास्ति तत् सत्त्वं मनः, तत्र भवा सात्त्वती । संज्ञाशब्दत्वेन बाहुलकात् स्त्रीत्वम् । सत्त्व-वागङ्गाभिनेयं सत्त्व- वागङ्गाभिनयैर्ज्ञाप्यम् । सत्त्वाभिनयवागभिनय - अङ्गाभिनययुक्तं मानसं कर्म सात्त्वतीत्यर्थः । अभिनयत्रयाभिधानेऽपि मानसव्यापारस्य सत्त्वप्रधानत्वात् सत्त्वाभिनय एवात्र प्रधानमितरौ गौणौ । श्रत एव सत्त्वशब्दः प्रथममुपात्तः । आर्जव मकौटिल्यम् । श्रधर्षो वाचा न्यक्कारः । मुद्द हर्षः । धैर्यं व्यसनेऽप्यकातर्यम् । एतैः रौद्रादिभिश्च सह वर्तमानो मनोव्यापारः सात्त्वती । आवस्योपादानादत्र कपटाभावः । धर्षख्यापनादुद्धतपुरुषसद्भावः । मुत्प्रतिपादनाच्छोक-करुण-निर्वेदाभावः । धैर्याभिधानात् ख्यादिसङ्गमौत्सुक्याभावश्चाभिहितो भवति ।
रौद्ररसयोगेऽपि केषाञ्चित् सत्त्वं प्रकाशरूपं दृश्यत एवेति रौद्रोपादानम् । वीररसश्चात्र युद्ध-दान- दयावीरादिरूपः, सत्त्वबाहुल्य द् गृह्यते । 'शम' इति च शम-स्थायिभावः शान्तो रसो द्रष्टव्यः । अरिषड्वर्गजयस्य सत्त्वैकनिबन्धनत्वात् । अद्भुतोऽप्यन्यसंवावलोकनात् सात्त्विकानां दृश्यत एवेति । इदं च मानसं कर्म विचित्राभिर्गम्भीरोक्तिभिः प्रारब्धकार्यापरित्यागात्, कार्यान्तरपरिग्रहेण संग्रामाय परोत्साहनेन, सामादिप्रयोग-दैवादिना अरिसंघात भेदजननेनान्यैश्च बहुभिः प्रकारैर्लक्ष्यते इति । [५] १०७॥
मानस,
सत् अर्थात् सत्त्व या प्रकाश [का नाम है ], वह जिसमें रहता है वह मन सत्त्व हुआ । उसमें रहनेवाली [मानस व्यापार रूप] सात्वती वृत्ति होती है। संज्ञा शब्द होनेसे बहुत करके [सात्त्वती शब्दसे में ] स्त्रीलिङ्ग [ वाचक ङीप प्रत्यय हुआ ] है । 'सत्त्ववागंगाभिनेय' [ का अर्थ ] वाचिक तथा कायिक अभिनयोंके द्वारा ज्ञाप्य [ व्यापार है ] । मानसिक अभिनय, वाचिक अभिनय, और कायिक अभिनयसे युक्त मानसिक व्यापार 'सात्त्वती' वृत्ति [कहलाता ] है, यह अभिप्राय है । [ मानसिक, वाचिक तथा कायिक ] तीनों प्रकार के प्रभिनयोंके कहे जानेपर भी मानस व्यापारके ही सत्त्व-प्रधान होनेसे इन [तीनों] में सत्त्वाभिनय हो प्रधान है और शेष दोनों गौरा हैं । इसीलिए सत्त्व शब्दका सबसे पहले ग्रहण किया गया है । [कारिका में आए हुए 'आर्जव' श्रादि शब्दों का अर्थ करते हैं] 'प्रार्जव' अर्थात् कुटिलताका प्रभाव 'प्रधर्ष' अर्थात् वाणीके द्वारा तिरस्कार [डाँट फटकार ] । 'मुत्' प्रर्थात् हर्ष | 'धैर्य' अर्थात् विपत्तिकाल में भी न घबराना । इनसे और रौद्रादिसे युक्त मानस व्यापार 'सात्त्वती' वृत्ति [ कहलाता ] है । श्रार्जवके ग्रहणसे इसमें कपटका प्रभाव [ सूचित होता है ] । 'प्राधर्ष' के कंथन से उद्धत पुरुषोंका सद्भाव [ सूचित होता है] । हर्षका प्रतिपादन होनेसे शोक, करुण निवेदका प्रभाव [ सूचित होता है] । 'ई' के कथनसे स्त्री प्रादिके सङ्गमके प्रति औत्सुक्यका प्रभाव सूचित होता है ।
रौद्ररसका योग होनेपर भी किन्हीं - किन्हीं में प्रकाश रूप सत्त्व दिखलाई देता है । इसलिए रौद्रका ग्रहण किया है। और इस [ सात्त्वती वृति ] में वीररंससे युद्धवीर दानवीर, दयावीर प्राविका ग्रहण सत्त्व-प्रधान होनेसे होता है। 'शम' पदसे शम जिसका स्थायिभाव है उस शांतरसका ग्रहरण होता है । क्योंकि [शांतरस में किए जानेवाले काम-क्रोधादि ] छः मानस शत्रुग्रोंके सत्व-प्रधान होनेसे [शमका ग्रहण किया है ] । अन्योंके सत्यको देखनेसे सास्विक वृत्तियों के लोगों में प्रदभुत भी पाया जाता है। [इसलिए इसका भी ग्रहण किया गया है ] । यह मानस व्यापार नाना प्रकारको गम्भीर उतियों द्वारा प्रारम्षकार्यके ( सैकड़ों विघ्न पड़ने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org