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( ४ ) नाटक और रस के पारस्परिक सम्बन्ध को चर्चा भरत मुनि के समय से ही की जाती रही है। उन्होंने नाटघ (ना.) के लक्षण में अन्य तत्त्वों के साथ रसतत्त्व का भी समावेश किया है, नाटय के प्रधान अंगों में पाठय, गीत, अभिनय के मतिरिक्त रस को भी गणना की है', तथा नाटय में रस की अनिवार्य स्थिति को प्रकारान्तर से स्वीकार किया है। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि नाट्यदर्पण में कथा पौर मुक्तक-काव्य की सिद्धि प्रलंकार-चमत्कार पर भाषारित की गयी है और नाटक तथा प्रबन्ध-काव्य की रस पर । किन्तु प्रथम धारणा अंशतः सत्य है, और दूसरी धारणा के सम्बन्ध में इतना और ज्ञातव्य है कि प्रबन्धकाव्यों की अपेक्षा नाटक में रस की पुष्टि अधिक संकुलता के साथ की जा सकती है, क्योंकि इस में विभावादि सामग्री अपने यथावत् रूप में सन्निविष्ट रहती है।
इसी प्रसंग में यह भी उल्लेखनीय है कि रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने शब्दार्थ को काव्य का शरीर मानते हुए कहा है कि इस शरीर में प्राण-संचार करने वाला रस ही है। यही कारण है कि कविजनों की प्रीनि रस की प्रति ही होती है
अर्थशब्दवपुः काम्यं रसः प्रारणेविसर्पति ।
प्रशंसा तेन सौहावं रसेषु कविमानिनाम् ॥ ना० ३० ३/२१ (.) प्रचलित पे इतर रसों त्या संचारिभावों का नामनिर्देश
इस ग्रन्थ में प्रचलित से इतर संचारिभावों तथा रसों का नाम-निर्देश किया गया है किन्तु इनका स्वरूप प्रस्तुत नहीं किया गया । इनकी सूची इस प्रकार है
संचारभाव --क्षुत्, तृष्णा, मंत्री, मुदिता, श्रद्धा, दया, उपेक्षा, रति, सन्तोष, क्षमा मार्दव, मार्जव, दाक्षिण्य प्रादि ।
रस--लोल्य, स्नेह, व्यसन, दुःख, सुख प्रादि । इन पांचों के स्थायिभाव क्रमशा ये हैगई (तृष्णा), माईता, मासक्ति, प्रति और सन्तोष । किन्तु कई प्राचार्य इनका अन्तर्भार प्रचलित रसों में मानते हैं। (३) नव रसों का क्रम
इस ग्रन्थ में शृंगार आदि नो रसों की पूर्वापर-क्रम स्थिति के सम्बन्ध में निम्नोर संगतियां प्रस्तुत की गयी है जो कि प्राय: मनस्तोवक है । (१) सर्वप्रथम श्रृंगार रस की गणना करने चाहिए क्योंकि 'काम' सब प्राणियों में सुलभ तत्त्व है, तथा उन्हें प्रत्यन्त परिचित रहता है, प्रत सब को मनोहर प्रतीत होता है । (२) श्रृंगार के उपरान्त हास्यरस की गणना की जाती है, क्योंकि यह रस शृंगार का अनुगामी (उससे उद्भूत एवं उसका पोषक) होता है। (३) इसके उपरान
१. बहकतरसमार्गम् x x x मा० शा० १६/११८ २. जग्राह पाठयमृग्वेदात् सामन्यो गीतमेव च।
यजुर्वेदभिनयान् रसानापरणादपि ॥ बही १/१७ ३. ये रसा इति पठयन्ते नाटचे नाटपषिधमणः । वही १/२ ४. देखिए पृष्ठ ६ ५, ६, हिन्दी नाटपर्पण पृष्ठ ३३१, ३०६
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