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नाट्यदर्पणम् [ का० ११८, सू० १७२ सर्वस्वापहरणदिराधर्षः। अन्यायोऽपनीतिः । अनेनौद्धत्यं सुचितम् । एतेभ्यो विभावेभ्यः क्रोधस्थायी रौद्रो रसो जायते । घातेन छेदन-भेदन-रुधिराकर्षणादिरनुभावो गृह्यते । दन्तौष्ठपीडनेन गण्डौष्ठस्फुरण-हस्ताप्रनिष्पेषाद्यनुभाववृन्दं सूच्यते । व्यभिचारिणश्चास्य मोह-उत्साह-आवेग-अमर्ष-चापल-औग्य-स्वेद-वेपथु-रोमान्चादय इति । स्थायिनोऽपि चोत्साहादयो रसान्तरं प्रति व्याभिचारितां स्वीकुर्वन्ति । स्तम्भस्वेदादयश्च न रसकार्या व्यभिचारिणः, किन्तु स्थायिकार्या इति ।। [१५] ११७ ॥
अथ वीरः[सूत्र १७२]-पराक्रम-बल-न्याय-यशस्तत्त्वविनिश्चयः।
वीरोऽभिनयनं तस्य धैर्य-रोमाञ्च-दानतः ॥[१६]११८॥ पराक्रमः परकीयमण्डलाद्याक्रमणसामर्थ्यम् । बलं हस्त्यश्व-रथ-पदाति-धनधान्य-मन्त्र्यादिसम्पत् । शारीरिकी शक्तिवर्वा। न्यायः सामादीनां सम्यक् प्रयोगः । अनेनेन्द्रियजयो गृह्यते । यशः सार्वत्रिकी शौर्यादिगुणख्यातिः । अनेन शत्रुविषये सन्तापकर्तृत्वप्रसिद्धिरूपः प्रतापो गृह्यते । तत्त्वं याथात्म्यं तस्य विनिश्चयः । एवमादिभिर्विभावैरुत्साहस्थायी वीररसः सम्भवति । स चानेकधा, युद्ध-धर्म-दान-गुण-प्रतापावर्जनविद्या, कर्म, देश, जाति आदिको निन्दा प्रौर राज्य या सर्वस्वका अपहरण प्रावि 'प्राधर्ष' [कहलाता है । अन्यायका नाम 'अपनीति' है। इसके द्वारा प्रौद्धत्यको भी सूचित किया है। इन विभावोंसे क्रोध रूप स्थायिभाव वाला रौद्ररस उत्पन्न होता है 'घात' पदसे छेवन-भेदन और रक्त बहाने प्रादि अनुभावोंका ग्रहण होता है । दांतों के पीसने और ओंठ चबानेसे गालों और प्रोष्ठोंके फड़कने, हायके अग्रभागके मलने, प्रादि अनुभाव-समुदायका प्रहण होता है। इस [रौद्ररस] के व्यभिचारभाव मोह, उत्साह, आवेग, अमर्ष, चपलता, उग्रता, स्वेद, वेपथ
और रोमाञ्चादि होते हैं। उत्साहादि [वीररसमें] स्थायिभाव होनेपर भी रौद्रादि] दूसरे रसों में व्यभिचारी बन जाते हैं । स्तम्भ और स्वेदादि रसके कार्यरूप होनेसे [यहाँ] व्यभिचारिभाव नहीं कहलाते हैं अपितु स्थायिभावके कार्य होनेसे व्यभिचारिभाव कहलाते हैं।[१५]११७॥
अब वीररस [का लक्षण प्रादि करते हैं]
[सूत्र १७२]-पराक्रम, बल, न्याय, यश, और तत्वविनिश्चय प्रादिसे वीररस होता है, पौर र्य, रोमाञ्च तथा दानके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है । [१६] ११८ ।
दूसरेके राज्य प्रादिपर पाक मरणको सामर्थ्य पराक्रम [कहलाता है। हाथी, घोड़े, रय, पदाति, धन-धान्य प्रौर मन्त्री प्रादिकी सम्पत्ति बल [पदसे अभिप्रेत है। अथवा शारी. रिक शक्ति [बल कहलाती है] । सामादि [उपायों का समुचित प्रयोग 'न्याय' [कहलाता] है। इसके द्वारा इन्द्रिय-जयका ग्रहण होता है। शोर्यादि गुणोंकी सर्वत्र प्रसिद्धि 'यश' [कहलाती है। इसके द्वारा शत्रुनोंके भीतर सन्ताप करनेकी प्रसिद्धि रूप प्रतापका [भी] प्रहण होता है। तत्त्व अर्थात् यथार्थता, उसका विनिश्चय [तत्त्वविनिश्चय कहलाता है । इस प्रकारके विभावोंसे उत्साह रूप स्थायिभाववाला वीररस उत्पन्न होता है। और युख, धर्म, बान, प्रादि गुणों तथा प्रतापाकर्षण प्रादि उपाधियोंके भेवसे [युटवीर, धर्मवीर, दानवीर पारि पसे] अनेक प्रकारका होता है। महान शत्रु-सैन्य अथवा महान विपत्तिके उपस्थित
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