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________________ का० १०२, सू० १५४ ] द्वितीयविवेकः [ २६६ स्वेच्छया वर्णनाभिप्रायमात्रेण उक्तस्यान्यथाख्यानं यदवस्पन्दितं श्रन्यार्थकथनरूपं यत् तदवस्पन्दितम् । चक्षुः स्पन्दनादिवत् अन्तर्गत सूचनीयसम्भवात् । यथा वेणीसंहारे "सत्पक्षा मधुरगिरः प्रसाधिताशा मदोद्धतारम्भाः । निपतन्ति धार्तराष्ट्राः कालवशान्मेदिनीपृष्ठे ||" अत्र स्वेच्छया शरद्वर्णनाय हंसवर्णनं सूत्रधारेणोक्तम् । एतत् पारिपार्श्विकेन धृतराष्ट्रसुतानां दुर्योधनादीनाममङ्गलार्थकथनेन अन्यथाख्यातम् । यथा वा छलितरामे "सीता - जाद ! पब्भाए तुम्मेहि अउज्झाए गंतत्र्वं । सो अ राया विएण - पणमिदव्वो । [जात ! प्रभाते युवाभ्यामयोध्यायां गन्तव्यम् । स च राजा विनयेन प्रणन्तव्यः ] लवः - अम्ब ! किमावाभ्यां राजोपजीविकाभ्यां भाव्यम् ? अन्य प्रकारसे कथन करना 'श्रवस्पन्दित' कहलाता है । [३६]१०१ । स्वेच्छा से प्रर्थात् साधारण वर्णन के अभिप्रायसे कहे हुएका अन्य प्रकार से कथन करना प्रर्थात् अन्य श्रर्थका कथन जो होता है वह प्रखके फड़कनेसे अन्तर्गत अभिप्रायके सूचनके समान होनेसे 'श्रवस्पन्दित' कहलाता है । जैसे वेणीसंहार में - शरद्वर्णनके अभिप्रायसे सूत्रधारने 'सत्पक्षा' : श्रादि श्लोक पढ़ा है । उसमें 'धार्तराष्ट्राः ' पद हंसोंके लिए श्राया है। किन्तु उससे कौरवोंके पतन रूप अन्य प्रर्थ की भी प्रतीति होती है । यद्यपि सूत्रधारने इस अभिप्रायसे नहीं कहा है किन्तु पारिपाश्विकने कौरवोंके नाश-रूप श्रमङ्गलार्थ में उसकी व्याख्या कर ली है । अतः यह 'अवस्पन्दित' नामक वीथ्यङ्गका उदाहरण है । इलोकका अर्थ दोनों पक्षोंमें निम्न प्रकार लगता है : सुन्दर पक्ष वाले [हंस और दुर्योधन के पक्ष में 'सत्पक्षा' का अर्थ भीष्म, द्रोरण आदि उत्तम पुरुष जिसके पक्ष में हैं इस प्रकारके कौरव यह होगा ] जिन [ हंसों] ने [ अपनी स्थिति से] विशानोंको प्रलंकृत कर दिया है [श्रौर कौरवोंके पक्ष में जिन्होंने सारी दिशाग्रोंको अपने वशमें कर लिया है ।] मदके कारणही उद्धत श्रारम्भ [ व्यापार ] करने वाले धार्तराष्ट्र [श्रर्थात् हंस और कौरव दोनों] काल [ हंसपक्षमें शरद्ध तु रूप काल, तथा कौरव पक्ष में मृत्यु रूपकाल ] के वशीभूत होकर पृथिवीपर गिर रहे हैं [ 'पतन्ति' का अर्थ हंस पक्षमें उतरना और कौरव पक्षमें गिरना है । हंस शरद् ऋतु में पृथिवीपर उतरते हैं ] । यहाँ सूत्रधारने शरद् ऋतुके वर्णनके लिए स्वेच्छासे हंसका वर्णन किया है । इसको पारिपाश्विकने दुर्योधन आदि धृतराष्ट्रके पुत्रोंके श्रमङ्गल-परक अर्थ में अन्य प्रकारसे समझ लिया है । [इसलिए यह 'अवस्पन्दित' का उदाहरण है ] । अथवा जैसे छलितराममें- सीता - हे पुत्रो ! कल सवेरे तुम दोनों प्रयोध्या जाना, और उस राजाको विनय-. पूर्वक प्रणाम करना । लव- माताजी ! क्या हम दोनोंको राजाका सेवक बन जाना चाहिए ? [ फिर हम उसको विनयपूर्वक नमस्कार क्यों करें ? ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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