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________________ २७० ] नाट्यदर्पणम । का० १०२, सू० १५४ सीता-सो खु तुम्हाणं पिदा । [स खलु युवयोः पिता] । लवः –किमावयो रघुपतिः पिता ? सीता-[साशङ्कम् ] न खु तु हाणं सयलाइ य्येव पुहवीए । [न खलु युवयोः, सकलाया एव पृथिव्याः ] ।" इति । एतानि च त्रयोदश वीथ्यङ्गानि सर्वरूपकाणां सर्वसन्धिषु निबन्धनीयानि । सर्वसन्धिसाधारण्यादामुखेऽपि भावाच्च सन्ध्यङ्ग भ्यः पृथगुक्तानीति ॥[३६]१०१॥ अथ व्यायोगादौ रूपान्तरे सामान्यनाटकलक्षणातिदेशामाह[सूत्र १५४] -स्वां स्वां वैशेषिकी हित्वा सन्धि-वृत्त्यादिकां स्थितिम् । सामान्या नाटकस्यान्या विज्ञेया रूपकान्तरे।[३७]१०२॥ वैशेषिकीमसाधारणी सन्धि-वृत्त्यादिकां इति आदिशब्दादङ्कपरिमाण-रसनायकादिपरिग्रहः । 'अन्या' इति पात्रोक्तिवैचित्र्य-अङ्कोपाय-दशा-सन्ध्यङ्गलक्षणनायकादिप्रकृत्यौचित्यादिका स्थितिायोगादौ रूपकान्तरे नाटकप्रतिपादिता ज्ञातव्या । प्रकरणे तु नाटकसमानत्वमुक्तमेव । नाटिका-प्रकरण्योःपुनर्नाटक-प्रकरणान्तर्भूतत्वान्न किञ्चित् पृथग वाच्यमिति सर्व समन्जसम् ।। [३७१०२ ॥ इति रामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपज्ञ-नाट्यदर्पणविवृतौ प्रकरणाद्येकादशरूपनिर्णयो द्वितीयो विवेकः समाप्तः ॥ सीता-वह तुम्हारे पिता हैं। लव-क्या रघुपति हम दोनोंके पिता हैं ? सीता-[साशङ्क] केवल तुम्हारे ही नहीं सारी पृथिवीके [वह पिता हैं। इन तेरह वीथ्यङ्गोंको सारे रूपकोंके सब सन्धियों में दिखलाना चाहिए। सब संधियों में साधारण होनेसे, और प्रामुखमें भी निबद्ध होनेसे इनको सन्ध्यङ्गोंसे अलग कहा गया है ॥[३६]१०१॥ __अब व्यायोग प्रादि अन्य रूपकोंमें सामान्य, नाटक-लक्षणका प्रतिवेश करते हुए [ग्रन्थकार] कहते हैं [सूत्र १५४] --अपनी-अपनी संधि तथा वृत्ति प्रादि विषयक विशेष स्थितिको छोड़कर नाटककी शेष स्थिति अन्य रूपकोंमें भी समान रूपसे समझ लेनी चाहिए ।[३७] १०२। 'वैशेषिकी' अर्थात् असाधारण। 'सन्धि-वृत्त्यादिकाम्' इसमें प्रादि शब्दसे प्रक-परिमाण, रस और नायक प्रादिका ग्रहण करना चाहिए । 'अन्या' इस पदसे पात्रोक्तिवैचित्र्य, अङ्क, उपाय, दशा, सन्ध्यङ्ग, लक्षण तथा नायकादि प्रकृतिका औचित्य आदि रूप स्थिति व्यायोगादि अन्य रूपकोंमें भी नाटक में प्रतिपादित [स्थितिके समान] समझ लेनी चाहिए। प्रकरणमें तो नाटककी समानता कही ही जा चुकी है। और नाटिका तथा प्रकरणीके अंतर्गत होनेसे [उन दोनोंके विषयोंमें ] अलग कुछ कहनेकी आवश्यकता नहीं रहती है। इस प्रकार सब विषय स्पष्ट हो जाता है ।[३७] १०२॥ श्री रामचन्द्र-गुरणचन्द्र विरचित स्वप्रणीत नाट्यदर्पणको विवृतिमें प्रकरणावि, एकदश रूपकनिरूपरण नामक द्वितीय विवेक समाप्त हुमा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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