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________________ २२ ] नाट्यदर्पणम् [ का०५, सू०४ कामफले च दिव्यकुलजस्त्रीसम्भोग-सङ्गीतक-कामचारोपवनविहारप्रायम। अर्थफले च शत्रुच्छेद-सन्धि-विग्रहादिराज्यचिन्ताप्रायमिति । . 'साक, इति अङ्क-उपाय दशा-सन्धिभिर्वक्ष्यमाणैः सह वर्तते । 'दिव्याङ्गम, इति दिव्यं देवता अन्योऽपि चोत्तमः प्रधानस्य नेतुरङ्ग सहायः पताका-प्रकरीनायक-लक्षणो यत्र । दिव्यो हि नेतैव विरुध्यते न पुन: सहायः। अत्यन्त भक्तानामेव नाम देवताः प्रसीदन्तीति देवताराधनपुरःसरं उपायानुष्ठानमाधेयमिति व्युत्पादनार्थ दिव्योऽप्यस्वेन कार्यः । का फल लोकमें साक्षात् नहीं देखा जाता है । इसलिए जिन व्रतादिके प्रदर्शनसे सामानिकको साक्षात् फलका दर्शन न हो सके उस प्रकारके धर्मका ग्रहण यहाँ धर्म पदमें अभिप्रेत नहीं है। राज्यादिकी बाधाका प्रभाव तो उसके पूर्वकृत धर्मका दृष्ट फल हो सकता है किन्तु व्रतानुष्ठानका फल उस समय देखनेको नहीं मिल सकता है। अतः दया, दान आदि दृष्टफल तथा राज्यकी बाधाका अभाव आदि प्रामुष्मिक धर्म फल माने जा सकते हैं । यह ग्रन्थकारका अभिप्राय प्रतीत होता है । और कामफल वाले [नाटक] में दिव्य [अर्थात् अप्सरा] अथवा [उत्तम कुलमें उत्पन्न हुई] कुलीन स्त्रीका. सम्भोग, सङ्गीत, कामचार [अर्थात् यथेच्छ उपभोग प्रादि पाचरण] और उपवन-विहार प्रादि [प्रधान फल प्रदर्शित किया है। अर्थफल वाले [नाटक में शत्रुका नाश, सन्धि-विग्रह आदि राज्य चिन्ताका प्रधान फलके रूपमें प्रदर्शन किया माता] है। यहां तक ग्रन्थकारने 'धर्मकामार्थसत्फलम्' इस कारिका-भागकी व्याख्या की है। अब मागे 'साझोपायदशासन्धि' इस पदकी व्याख्या करते हैं। इसमें अङ्क, उपाय, दशा और सन्धि पद पाए हैं, ये सब नाट्यशास्त्रके पारिभाषिक शब्द हैं। ग्रन्थकार इन सबके लक्षरण आगे करेंगे। उन प्रङ्क प्रादि सबसे युक्त, पूर्वकालिक राजाओं के चरित्रका प्रस्तुत करने वाला नाटक होता है यह इस पदका अभिप्राय है । इसी अभिप्रायको अगली पंक्तियों में देते हैं आगे कहे जाने वाले प्रङ्क, उपाय, दशा तथा सन्धिसे युक्त [प्राधराजचरित नाटक कहलाता है] | "दिव्याङ्गम्' [इस पदके दो प्रकारके अर्थ हो सकते हैं। उनमेंसे पहिला अर्थ यह है कि दिव्य अर्थात् देवता [अथवा और भी [कोई] उत्तम-प्रकृति [महानुभाव प्रधान अर्थात् नायकका अङ्ग अर्थात् सहायक प्रर्थात् पताका-नायक अथवा प्रकरी-नायक-रूप जिसमें हो [वह नाटक 'दिव्याङ्ग' हुआ। इसपर यह शङ्का हो सकती है कि अभी तो नाटकमें दिव्य नायकके रखे जानेका खण्डन कर चुके हैं फिर उसके तुरन्त बाद ही देवतामोंको नायकका सहायक अथवा पताका-नायक या प्रकरी-नायक बनानेकी बात कह रहे हैं ये दोनों विरुद्ध बातें हैं। इसका शङ्का समाधान करते हैं कि] देवताको नायक बनाना ही अनुचित है सहायक बनाना [अनुचित नहीं है । प्रत्यन्त भक्तोंके ऊपर ही देवता प्रसन्न होकर उनके सहायक बननेके लिए उद्यत] होते हैं इसलिए देवताओंका पूजन करके ही उपायोंका अनुष्ठान करना चाहिए इस बातको शिक्षा देनेके लिए देवताओंको भी सहायक [रूपमें प्रस्तुत करना चाहिएं [यह इस पंक्तिका अभिप्राय है] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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