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का०५, सू० ४ ] प्रथमो विवेकः
[ २१ नाथिका तु दिव्यापि भवति यथोर्वशी। प्रधाने मर्त्यचरिते तच्चरितान्तर्भावात् । उपदेशाजहप्रायवृत्तत्वेन दीप्तरसत्वेनैव च समवकारादौ दिव्योऽपि नेता न विरुध्यते । चरितमित्याचरितं न तु कविवुद्धिकल्पितम् । बाहुल्यापेक्षं चैतत, तेनाल्पं किमपि रजक कल्पितमपि न दोषायेति ।।
धर्म-काम-अर्था व्यस्त-समस्ताः सत् प्रधानं फलं यत्र । मोक्षन्तु धर्मकार्यत्वात् गौणं फलम् । सन्तोऽचिरभावित्वाद् वर्तमाना वा धर्मार्थ-कामाः फलम। तेन भाविकामार्थफलत्वादागमान नाटकम् ।
तत्र धर्मफले नाटके दया-दम-दान-न्यायप्रायं दृष्टफलं आमुष्मिकफलं च राज्याद्यबाधया नेतुश्चरितं व्युत्पाद्यते । न पुनः सर्वसङ्गपरित्यागं कृत्वा व्रतमाचरितमित्यामुष्मिकफलमेव । साक्षाद् दृष्टफलार्थी हि लोकः। . नायिका दिव्य भी हो सकती है
नायिका तो दिव्य भी हो सकती है जैसे उर्वशी । क्योंकि प्रधान मानव [रूप नायक | के चरित्रमें उस [दिव्य नायिका के चरित्रका अन्तर्भाव हो जाता है। उपदेश प्रदान करनेकी क्षमतासे रहित और दीप्त रस वाला होनेते समवकार प्रादिमें तो दिव्य अर्थात् देवताओंको नेता माननेपर भी कोई विरोध नहीं होता है। 'चरित्रमें' इस पदसे | पहले ] आचरण किया हुआ यह अर्थ गृहीत होता है । कविकी बुद्धिसे कल्पित [चरित्रका का ग्रहण] नहीं होता है । और यह बाहुल्यको दृष्टि से [कहा गया है इसलिए थोड़ा-सा कुछ सौन्दर्याधायक [वृत्त] कल्पित होनेपरभी दोषाधायक नहीं होता है।
[आगे 'धर्मकामार्थसत्फलम्' इस कारिका भागको व्याख्या करते हैं-] अलग-अलग [व्यस्त या समस्त [समष्टि] रूपमें धर्म, काम और अर्थ जिसके सत् अर्थात् प्रधान फल हैं [वह 'धमकामार्थसत्फलम्' हुआ] । मोक्ष तो धर्मका कार्य [धर्म-जन्य होनेसे गौरण फल होता है [इसलिए यहाँ उसकी गणना नहीं कराई है] । अथवा अत्यन्त शीघ्र प्राप्त होने वाले होनेसे भावी धर्मादि को भी सत् कहा जा सकता है इसलिए सत् अर्थात् वर्तमान [वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवद्वा] धर्म काम और अर्थ जिसके फल है [यह 'धर्म-कामार्थसत्फलम्' को दूसरी व्याख्या हुई। इस व्याख्याके अनुसार [सुदूरवर्ती जन्मान्तर में प्राप्त होने वाले] भावी फल [का प्रतिपादन करने वाले 'पागम', नाटक [श्रेणी में नहीं माने जाते हैं।
उन [धर्म, काम और अर्थ फल वाले नाटकों जैसे] में से धर्म-फल वाले नाटकोंमें दया, दम, दान और न्याय प्रादि दृष्ट फल तथा राज्य प्रादिकी अबाघासे पारलौकिक फल वाले नेताके चरित्रका प्रदर्शन कराया जाता है। समस्त सम्बन्धोंको परित्याग करके [नायकने] व्रतका अनुष्ठान किया इस रूपमें प्रामुष्मिक फल वाले [नायकके चरित्र का प्रदर्शन नहीं [कराया जाता है । इसका कारण यह है कि संसार साक्षात् दृष्ट फलको [देखना चाहता है।
__'धर्म-कामार्थसत्फलम्' इस कारिकाभागमें धर्म फल वाले नाटककी चर्चा की गई है। धर्म के भीतर विधिरूप और निषेधरूप दोनों प्रकारके धर्मोका समावेश हो सकता है। दया दान आदिका करना विधिरूप धर्म है और सब व्यापारोंसे उपरति रूप व्रतादि, निषेध रूप धर्म है। यहाँ नाटकमें दया दानादि रूप विधि धर्मोंका ही धर्म पदसे ग्रहण करना चाहिए । सर्वव्यापारोपरति रूप धर्मका ग्रहण नहीं करना चाहिए क्योंकि उस प्रकारके कर्मों
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