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________________ २० ] नाट्यदर्पणम [ का० ५, सू० ४ , राजेति क्षत्रियमात्रं, न पुनरभिषिक्त एव । राम-जीमूतवाहन पार्थादीनामनभिषिक्तानामपि दर्शनात् । क्षत्रियो मर्त्य एव तेन न देवनेतृकं नाटकमित्युक्तं भवति । नाटकं हि रामवद्वर्तितव्यं न रावणवत् इत्युपदेशपरम् । देवतानां तु दुरुपपादस्याव्यर्थस्येच्छामात्रत एव सिद्धिरिति तच्चरितमशक्यानुष्ठानत्वान्न मर्त्यानामुपदेशयोग्यम् । तेन ये दिव्यमपि नेतारं मन्यन्ते न ते सम्यगमंसतेति । " न च वर्तमानचरितानुकारो युक्तो, विनेयानां तत्र राग-द्वेषमध्य अध्यस्थतादिना तन्मयीभावाभावे प्रीतेरभावेन व्युत्पत्तेरप्यभाभात् । वर्तमानचरिते च धर्मादिकर्म - फत्तसम्बन्धस्य प्रत्यक्षत्वे प्रयोगवैयर्थ्यम् । अप्रत्यक्षत्वे 'भविष्यति प्रमाणाभावात् इति न्यायेन व्युत्पत्तेरसम्भवान्नाधिकम् । एतच्च दशरूपकाध्याय वितनिष्याम इत्यास्तां तावत् ” । इसका अभिप्राय यह है कि प्रभु राजादिके प्रसन्न करनेके लिए कभी-कभी उसके चरित्रका भी अभिनय उनको दिखलाना चाहिए ऐसा जो लोग मानते हैं उनका कथन उचित नहीं है। क्योंकि दशरूपकों के लक्षणों में कुछ नाटकादि प्रसिद्ध चरित वाले माने गए हैं प्रोर समवकार आदि कुछ भेद उत्पाद्य चरित अर्थात् कल्पित चरित्र के श्राधारपर निर्मित माने गए हैं। वर्तमान राजादिका चरित्र इन दोनों में से किसी श्रेणी में नहीं श्राता है । अतः उसका अभिनय उचित नहीं है । इस सम्बन्ध में दूसरी युक्ति यह है कि वर्तमान चरित्रों में देखने वालों का राग-द्वेष- माध्यस्थ्य आदि होनेसे उनका न मनोरंजन होगा और न उनको कोई शिक्षा ही मिलेगी । अर्थात् नाटकके दोनों ही प्रयोजन व्यर्थ हो जायेंगे । श्रतः वर्तमान चरितका अभिनय नहीं करना चाहिए । इसी विषय में अभिनवगुप्तने तीसरी युक्ति यह दी है कि वर्तमान चरितमें यदि धर्मादिका फल तुरन्त प्रत्यक्ष हो जाता है तो नाटकके प्रयोगका कोई लाभ सामाजिकको नहीं मिलता है । और यदि धर्मादि फलका प्रत्यक्ष नहीं होता है तो उससे कोई. शिक्षा नहीं मिल सकती है । अतः वर्तमान चरितका अभिनय उचित नहीं है । यहाँ प्रकृत ग्रन्थ में रामचन्द्र गुणचन्द्रने भी वर्तमान चरित्र के अभिनयको अनुपयुक्त ठहराया है। उनकी युक्तियां श्रभिनवगुप्तकी युक्तियोंसे भिन्न है किन्तु उनकी कल्पना सुन्दर है । इन दोनोंकी युक्तियों को मिलाकर इस विषयका एक सर्वाङ्ग सुन्दर विवेचन उपस्थित हो जाता है । इसलिए हमने अभिनवगुप्तके मतका यहाँ उल्लेख कर दिया है । नाटक में देवताओं के नायकत्वका खण्डन -- और 'राजा' पदसे क्षत्रियमात्रका ग्रहण करना चाहिए केवल अभिषिक्तका हो [ग्रहण ] नहीं [करना चाहिए ]। क्योंकि राम, जीमूतवाहन और युधिष्ठिर श्रादि अनभिषिक्त भी [ नायक रूपमें] पाए जाते हैं । क्षत्रियसे मानव [रूप क्षत्रिय ] का ही ग्रहण करना चाहिए इसका यह अभिप्राय होता है कि नाटक में देवतानोंको नायक नहीं बनाया जा सकता है। क्योंकि 'रामके समान श्राचरण करना चाहिए रावण के समान नहीं, इस उपदेशको देनेवाला नाटक होता है । और देवताओं के लिए तो प्रत्यन्त कठिन कार्यको सिद्धि भी उनकी इच्छा मात्र ही हो जाती है इसलिए उनके चरितके अनुसार आचरण सम्भव न होनेसे वह मनुष्योंके लिए उपदेशपर नहीं हो सकता है [ इसलिए देवताको नायक बनाना व्यर्थ धौर अनुचित है] इसलिए जो देवताओं को भी [नाटकोंको ] नायक मानते हैं उनका मत ठीक नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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