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का० ४, सू० ४ ]
प्रथमो विवेकः
[ १६
आद्य ेति पूर्वः तेन वर्तमानभविष्य तोर्निरासः । कविना हि रञ्जनार्थं किश्चित् सदयुपेक्ष्यते, किचिदसदप्याद्रियते । वर्तमाने च नैसरि तत्कालप्रसिद्धिबाधया रसहानिः स्यात् । पूर्व महापुरुषचरितेषु च अश्रद्धानं स्यात् । भविष्यतस्तु वृत्तं चरितमपि न भवति । चर्यते स्म चरितमित्यतीतनिर्देशात् ।
यह 'देशेन' प्रसिद्धिका उदाहरण है । इस प्रकार एक वत्सराज उदयन के चरित्रमें ही तीनों प्रकारको प्रसिद्धिके उदाहरण ग्रन्थकारने दिखला दिए हैं। वर्तमान चरित्रों के अभिनयका निषेध -
नाटकों में केवल पूर्वकालके प्रसिद्ध राजाग्रोंको ही नायक रूपमें प्रस्तुत किया जा सकता है वर्तमान या भविष्यत्के राजाओं को चरित-नायक के रूपमें प्रस्तुत नहीं करना चाहिए इस बातको यहाँ अन्थकारने 'आद्य-राज' पदसे सूचित किया है । इस बातको विवरणकार अगली पंक्तियों में दिखलाते हैं-
'प्राद्य' इस [पद ] से पूर्व [कालके राजामोंका ही ग्रहण होता है], इसलिए वर्तमान और भविष्यत् [ कालके राजानोंके चरित्रका वर्णन] का निषेध हो जाता है। [इसकेलिए आगे दो युक्तियां देते हैं । उनमेंसे पहली युक्ति यह है कि-नाटक में] शोभाधान के लिए कवि कभी-कभी कुछ विद्यमान [अर्थात् वास्तविक ] वातको भी छोड़ देता है और कुछ प्रविद्यमान [अर्थात् स्वयं कल्पित प्रथं] को भी ग्रहरण कर लेता है। [यदि नाटकोंमें वर्तमान कालके व्यक्तिको भी नायक बना दिया जाय तो ऐसे स्थलोंमें] वर्तमानको नेता बनानेपर तो तस्कालीन प्रसिद्धि बाधित होनेसे रसकी हानि होगी । और पूर्वकालके महापुरुषोंके चरितकी उपेक्षा [श्रद्धानं] भी होगी । [इसलिए वर्तमान कालके चरित्रको नाटकमें नायक नहीं बनाना चाहिए] और भविष्यत् कालका [कल्पित कथानक ] तो 'चरित' भी नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि जिसका [ प्रतीतकाल में ] श्राचररण किया जाता था वह 'चरित' [ कहलाता ] है यह [बात 'चरित' पदमें प्राए हुए क्त प्रत्ययसे सूचित होती है। इसलिए क्त प्रत्ययके द्वारा ] प्रतीतकालका निर्देश होनेसे [ भविष्यत्कालके कथानकको चरित भी नहीं कहा जा सकता है] । अभिनव भारतीकार अभिनवगुप्तने भी प्रथमाध्यायमें [पृ० १४५ पर] इस विषय की विवेचना विस्तार के साथ की है। भरत नाट्यशास्त्र के प्रथमाध्याय में 'तदन्तेऽनुकृतिवंद्धा यथा दैत्याः सुरंजिता:' । यह [ श्लोक ५७ ] प्राया है। इसमें इन्द्रको सभामें देवताओंों द्वारा दैत्योंपर विजय प्राप्त करनेके कथानकके अभिनय किए जानेकी बात लिखी है । इस प्राधारपर किन्हीं पूर्ववर्ती टीकाकारोंने यह परिणाम निकाला है कि अपने स्वामी राजा प्रादिको प्रसन्न करनेके लिए कभी-कभी उनके चरित्रका भी अभिनय उनको दिखलाना चाहिए। परन्तु प्रभिनवगुप्त इस बातको स्वीकार नहीं करते हैं । इसलिए उन्होंने प्रथमाstreet इस ५७ वीं कारिकाकी व्याख्या के प्रसङ्गमें इस प्रश्नको उठाकर उसका खण्डन निम्न 'प्रकारसे किया है
"प्रभुपरितोषाय प्रभुचरितं कदाचिन्नाटये वर्णनीयमिति' 'यथा दैत्याः सुरैर्जिताः' इत्येतस्माल्लभ्यत इति केचिदाहुः ।
- तदसत् । दशरूपक-लक्षण युक्तिविरोधात । तत्र हि किञ्चित् प्रसिद्धचरितं किञ्चिदुत्पाद्यचरितमिति वदयते” ।
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