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________________ २६ ] नाट्यदर्पणम् । [ का०५, सू०६ भव बहुवचनाप्तमेव विषयभेदं स्पष्टयति[सत्र ६] देवा धीरोद्धता, धीरोदाचाः सैन्येश-मन्त्रिणः । . धीरशान्ता वणिग्-विप्राः, राजानस्तु चतुर्विधाः ॥७॥ स्वभाव-स्वभाविनोरभेदात् सामानाधिकर एयनिर्देशः । राज्ञां चातुविध्यमहनात् देवा धीरोद्धता एव, सैन्येश-मन्त्रिणो धीरोदात्ता एव, वणिग-विप्रा घोरशान्ता एव, वर्णनीया इति स्वयोगव्यवस्थायकत्वेनैवावधार्यते नान्ययोगव्यबच्छेदेन । तीन भेद हो सकते हैं। फिर भी पीरोइत मावि [नायकोंके स्वभाव] उत्तम तथा मध्यम [बस दो] भेदों में ही वर्णन करने चाहिए [अर्थात् उनके अधम रूपको नाटकों में प्रस्तुत नहीं करना चाहिए] ॥६॥ स्वमाव-व्यवस्था पिछली कारिकामें नायकोंके चार प्रकारके स्वभावोंका वर्णन किया था। उसकी बास्सामें यह भी कहा था कि सामान्य रूपसे एक व्यक्तिमें एक ही प्रकारका स्वभाव पाया बाता है किन्तु कहीं-कहीं चारों प्रकारके स्वभाव भी एक व्यक्तिमें पाए जा सकते हैं । अब इन चारों प्रकारके स्वभावोंकी व्यवस्था अर्थात् किन लोगोंमें किस प्रकारका स्वभाव पाया बाता है अथवा किसका किस प्रकारका स्वभाव नाटकादिमें चित्रित करना चाहिए इस बात को इस कारिकामें कहते हैं [सूत्र ६]-देवता धीरोदत [स्वभाव] सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त [स्वभाव] पहिला तथा बाह्मण धीरप्रशान्त [स्वभाव तथा क्षत्रिय चारों प्रकारके [स्वभाववाले हो सकते हैं ॥७॥ इस कारिकामें धीरललितका कोई उल्लेख नहीं किया है। व्यक्तिभेदसे क्षत्रिय चारों स्वभावके हो सकते हैं । इस कथनसे क्षत्रियों में धीरललितका समावेश हो जाता है । श्रीकृष्ण आदि धीरललित-नायकके उदाहरण हैं। यहां जो देवतामोंको धीरोद्धत, सेनापति मौर मन्त्रियोंको धीरोदात्त, तथा विप्र तथा वणिकको धीरप्रशान्त बतलाया है, उसका अभिप्राय स्वयोगव्यवस्थापन-मात्र है, अन्ययोग-व्यवच्छेद नहीं। अर्थात् देवता प्रादिका उसी-उसी प्रकारका स्वभाव चित्रित करना चाहिए यही इस व्यवस्थाका अभिप्राय है। प्रत्योंमें इस प्रकारका स्वभाव नहीं हो सकता है, यह इसका तात्पर्य नहीं है। इस बातको विवरणकार पाये लिखते हैं स्वभाव तथा स्वभाववान दोनोंका प्रभेद मानकर दिया धोरोखताः मादिमें समभाव परक पोरोखताः' तथा स्वभाववान् 'देवा' दोनों पदोंका समाम विभक्ति तथा समान पचनमें प्रबोब म] सामानाधिरण्य-निर्देश किया गया है। राजा [प्रति मषियों के चातुर्विम्यके बहे बानेसे देवता पोरोखत ही हो सकते हैं], सेनापति तथा मन्त्री धीरोदात्त हो, मोर बलिकतवा विप्र धीरप्रशान्त ही वरिणत होने चाहिए यह बात स्वयोगम्यवस्थापकत्वेन ही निर्धारित होतो है प्रन्ययोग म्यवच्छेदकत्वेन नहीं। अमुक बात ऐसी ही होनी चाहिए इस भावमें सयुक्त होने वाला 'ए' पद विवरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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