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________________ का० १०६, सू० १५८ ] अथामुखाङ्गभूतं नाट्यपात्रप्रवेशविधिमाह तृतीयो विवेक: [सूत्र १५८ ] - वाक्यार्थसमयाह्वानैर्भावोक्तैः पात्रसंक्रमः । समयः कालः । श्रह्ननं संज्ञा । एतैः सूत्रधार-स्थापकाभ्यामुक्तैर्हेतुभूतैः पात्रश्य मुख्य नायकादिभूमिकाधारिणो नटादिलोकस्य संक्रमः प्रवेशः । वाक्यार्थयोनूद्यमानतया पात्रप्रवेशहेतुत्वम् । समयाह्वनयोस्तु सूचकत्वेनेति । वाक्येन यथा हरिश्चन्द्र - "स्वैकतानवृत्तीनां प्रतिज्ञातार्थकारिणाम् । प्रभविष्णुर्न देवोऽपि किं पुनः प्राकृतो जनः ॥" एतदेव पठन् हरिश्चन्द्रः प्रविशति । अर्थेन यथा वेणीसंहारे Jain Education International "निर्वाणवैरदद्दनाः प्रशमादरीणां, नन्दन्तु पाण्डुतनयाः सह माधवेन । रक्तप्रसाधितभुवः चतविग्रहाश्च स्वस्था भवन्तु कुरुराजसुता सभृत्याः ॥” आमुख अङ्गभूत पात्रप्रवेशके नियम [ २८१ अब आमुख श्रङ्गभूत नाट्यके पात्रोंके प्रवेशके विधिको कहते हैं [ सूत्रे १५८ ] -- [ भाव अर्थात् ] सूत्रधार प्रथवा स्थापकके द्वारा कहे हुए वाक्य [प्रथवा उसके] अर्थ, [अथवा ] काल, [ श्रथवा ] नामके द्वारा [ नाट्य के मुख्य ] पात्रका प्रवेश होता है [या कराना चाहिए] । समय अर्थात् काल । श्राह्नान अर्थात् संज्ञा [नाम ] | सूत्रधार अथवा स्थापकके द्वारा कहे गए इन [वाक्य, अर्थ, समय तथा नाम ] के द्वारा पात्र प्रर्थात् मुख्य नायक श्रादिके वेब को धारण करनेवाले नटादिका संक्रम अर्थात् प्रवेश होता है । वाक्य तथा अर्थका अनुवाद द्वारा पात्र प्रवेश प्रति हेतुत्व होता है और काल तथा नामका सूचक होनेसे । airs द्वारा [प्रवेश] जैसे हरिश्चन्द्र में - "एकमात्र सात्त्विक वृत्तिवालों, और प्रतिज्ञात अर्थको पूर्ण करनेवालों [के कार्य ] का भगवान भी बाधक नहीं हो सकता है, तब साधारण मनुष्यों [के बाधक बन सकने] की तो बात ही क्या है ।" [प्रामुखमें सूत्रधार पठित] इसी वाक्यकों बोलते हुए [प्रधान पात्र] हरिश्चन्द्र प्रवेश करता है । अर्थके द्वारा [ प्रवेशका उदाहरण] जैसे वेरणीसंहार में "शत्रुग्रोंके नष्ट हो जानेसे जिनका वर रूप श्रग्नि शान्त हो गया है इस प्रकारके पांडव लोग कृष्ण के साथ आनन्द मनाएँ । और रक्तसे भूमिको सुशोभित करनेवाले [ अथवा रक्तेभ्यः प्रियजनेभ्यः प्रसाधिता दत्ता भूयः, ते रक्तप्रसाधितभुवः ] अपने प्रिय सेवकोंको भूमि प्रदान करनेवाले, तथा जिनके विग्रह अर्थात् शरीर घायल हो गये हैं [ अथवा जिन्होंने विग्रह अर्थात् युद्ध समाप्त कर दिया है] इस प्रकारके कौरव लोग अपने भृत्योंके सहित स्वर्ग में स्थित [ अथवा स्वस्थ शरीर ] हों ।" For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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