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________________ २८० 1 'नाट्यदर्पणम् [ का० १०५, सू० १५७ कदाचित् सनान्दीक रङ्गमनुष्ठाय विश्रान्ते सूत्रधारे, तत्तुल्यगुणाकृतिः स्थापक श्रामुखमनुतिष्ठति । तथा चानङ्गवत्यां नाटिकायां दृश्यते-'पूर्वरंगत्यान्ते स्थापकः । अत्र च पक्षे प्रामुखानुष्ठानेऽपि कवेापारः। स्थापकस्य सूत्रधारानुकारिणो रामानुकारिणो नटस्येव कविनैव प्रवेशात् । 'वक्रोक्त' इति च वीथ्यङ्गानामेवंविधरूपाणां व्याहारादीनां सद्भावमाहेति । स्पष्टोक्तिस्त्वेवं यथा-'नागानन्दे नाटयितव्ये किमित्यकारणमेव रुद्यते ?' इति ॥[३]१०५॥ सूत्रधारका मुख्य सहायक या पारिपाश्विक भी कभी विदूषकका-सा वेष धारण करके उसी के समान कार्य करता हुआ सामने आता है इसके लिए ही यहां विदूषक शब्द का प्रयोग किया गया है। अब एक शब्द और रह जाता है 'स्थापक' । सूत्रधार के समान ही वेष तथा कार्यको करने वाला उसका कोई सहायक स्थापकके रूप में नाटककी प्रस्तावना करता है उसको 'स्थापक' कहते हैं । मुख्य नाटकके प्रारम्भ होनेसे पहिले अनेक प्रकारकी तैयारी करनी होती है । उसको पूर्वरङ्ग कहा गया है। पूर्वरङ्गके १५ अङ्ग भरतनाट्यशास्त्र में कहे गए हैं। इन्हीं में मान्दी पाठ भी एक अङ्ग है । प्राय: नाटकोंके प्रारम्भ में सबसे पहले 'नान्दी' के श्लोक लिखे मिलते हैं। भासविके नाटकों में उन नान्दी-श्लोकोंका उल्लेख नहीं रहता है। नान्दी वाले श्लोक नाटक में लिखे गए हों अथवा न लिखे गए हों किन्तु उनका पाठ किया अवश्य जाता है। नान्दी पाठ तकका सारा पूर्वरङ्गका कार्य निश्चित रूपसे सूत्रधार ही करता है। उसके बाद प्रामुख या प्रस्तावनाका अवसर प्राता है। इस प्रस्तावनाके विषय में दो प्रकारको व्यवस्था पाई जाती है। कभी तो सूत्रधार स्वयं ही प्रस्तावनाका कार्य भी करता है । अर्थात् प्रस्तावना या प्रामुख द्वारा स्वयं ही मुख्य पात्रों का प्रवेश करबाकर सूत्रधार रङ्गमञ्चसे बाहर जाता है। किन्तु दूसरे प्रकार की यह व्यवस्था भी पाई जाती है कि नान्दीपाठ तकका कार्य सूत्रधार स्वयं करता है। नान्दीपाठके समय सारा नटवर्ग उपस्थित रहता है । अभिनय करने वाले सारे नट मिलकर प्रार्थना श्रादि करते हैं। उसमें मूत्रधार भी अवश्य उपस्थित रहता है। किन्तु उसके बाद सूत्रधार स्वयं निवृत्त हो जाता है। उसके स्थानपर उसके सदृश दूसरा व्यक्ति आकर प्रस्तावना या प्रामुखका कार्य करता है उसको 'स्थापक' कहते हैं। इसी बातको ग्रन्थकार प्रागे लिखते हैं कभी तो नान्दी सहित पूर्वरङ्गको समाप्त करके सूत्रधार के विश्राम कर लेनेपर उसके तुल्य गुणों और प्राकृतिवाला स्थापक [प्राकर] 'प्रामुख'का सम्पादन करता है। जैसे कि 'अनङ्गवती' नाटिकामे 'पूर्वरङ्गके बाद स्थापक' [प्रविष्ट होता है यह लिखा है । इस पक्षमें प्रामुखके अनुष्ठानमें भी कविका व्यापार होता है। रामका अनुकरण करनेवाले नटके [प्रवेशके] समान सूत्रधारका अनुकरण करनेवाले स्थापकका भी प्रवेश कविके द्वारा ही कराए जाने के कारण ['प्रामुख' भी कविका व्यापार होता है, लक्षणमें दिए हुए] 'वक्रोक्त' इस पदसे इस प्रकारके [अर्थात् प्रभी द्वितीय विवेकके अन्त में कहे हुए] व्यवहारादि रूप वीथ्यङ्गों की सत्ता [प्रामुखमें सूचित की है। स्पष्टोक्ति तो इस प्रकार होती है जैसे कि 'नागानन्दका अभिनय करते समय बिना बातके क्यों रोते हो । [३]१०५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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