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________________ मजार-बीर-कवण-बीभत्साभयानका ता हास्यः। रोदा शान्तः प्रेयानिति मन्तव्याः रसा। सर्वे।। [वट काव्यामडार १२-१] पाठ रसों को मान कर शान्तरस का बण्डन करने वालों में दशरूपककार धनम्बय और उनके टीकाकार धनिक का नाम विशेष रूप से उल्लेख-योग्य है । धनजय ने लिखा है सममपि केचित् प्राहा पुष्टिनाट्येषु नैतस्य । निर्वेदादिरताप्यावस्थायी स्वरते करम् ।। वरन्यायक तत्तोषस्तेनाष्टो स्थायिनो मताः ॥" [वचस्पक ४, ३.-1६] इसकी व्याख्या करते हुए धनिक ने लिखा है "इह शान्तरसं प्रति वादिनामनेकविषा विप्रतिपत्तयः । केविदाहुः नास्त्येव शान्तो रसः । तस्थाचार्येण विभावामप्रतिपादनाल्लक्षणाकरणात् । अन्ये तु वस्तुतस्तस्याभावं वर्णयन्ति । पनादिकालप्रवाहायातरागषयोरुन्छेत्त मशक्यत्वात् । मन्ये तु वीरवीभत्सादावन्तर्भावं वर्णयन्ति । एवं बदन्तः थममपि नेच्छन्ति । यथा तथा पस्तु । सर्वया नाटकादी अभिनयात्मनि स्थायित्वमस्माभिः हमस्म निषिध्यते । तस्य समस्तव्यापारविषयरूपस्य मभिनयायोगात् । [दशरूपक ४, ३५-३६] दशरूपककार के शान्तरस के विरोधी होने पर भी नाटयशास्त्र के प्रमुख व्याख्याता सूट, भट्टनायक, अभिनवगुप्त मादि ने शान्तरस की सत्ता स्वीकार की है और उसे नाव्यरस माना है इसलिए उसका निषेध करना उचित नहीं है। नाटघदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र भी इस विषय में अभिनवगुप्त के साथ है । रस के भेद करते हुए उन्होंने लिखा है मृङ्गार-हास्य-करुणा, रौद्र-वीर-भयानकाः। बीभत्साह.त-शान्ताच, रसा: सद्भिर्नव स्मृताः ।। [नाटपदर्पण ३, १] (३) शा तरस की स्थिति के बाद तीसरा प्रश्न शान्तरस के स्थायिभाव का है। शान्तरस का स्थायि पाव क्या है ? इस विषय में अनेक मत पाए जाते हैं । मम्मट में 'निर्वेद' को शान्तरस का स्थायिभा ह बतलाते हुए 'निर्वेदस्थायिभावोऽस्ति शान्तोऽपि नवमो रसः [का० प्र० सूत्र ४. का. ३५] । भरतमुनि ने व्यभिचारीभावों की गणना कराते समय 'निर्वेद' को सबसे पहिला व्यभिचारी भार गिनाया है। तब उसे शान्तरस का स्थायिभाव कसे कहा जा सकता है? यह शंका हो सकती है इस बात को मन में रख कर काव्यप्रकाशकार मम्मट ने उसका समाधान करने का यत्न किया है । उनका कहना है कि 'निर्वेद' स्वरूपतः प्रमङ्गल हए है । उसको व्यभिचारि. भावों की गणना में सबसे पहिले नहीं गिनना चाहिए था। किन्तु भरत मुनि ने उस प्रमाङ्गलिक 'निद' का जो सबसे पहिले ग्रहण किया है, वह इसलिए किया है कि 'निर्वेद' एक ऐसा पाव है वो व्यभिचारिभावों में परिगणित होने पर शान्तरस का स्थायिभाव है। उसकी स्थायिता की सूचना के लिए ही गरत मुनि ने 'निर्व' का ग्रहण सबसे पहिले किया है । मम्मट ने अपने इस अभिप्राय को निम्न प्रकार से प्रकट किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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