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( २९ ) रसों के विषय में नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुराचन्द्र का मत पूर्वोक्त दोनों मतों से भिन्न प्रकार का है । उसे हम विभज्यवादी मत कह सकते हैं। विश्वनाथ प्रादि ने सभी रसों को सुखात्मक रस माना है। भभिनवगुप्त ने सभी रसों को उभयात्मक रस मारा है । किन्तु नाट्यदर्पणकार रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने न सभी रसों को सुखात्मक रस माना है, औः न सभी रसों में सुख-दुःख दोनों का समावेश माना है। उन्होंने रसों को अलग-अलग दो भागों में विभक्त कर दिया है । जिनमें से शृङ्गार. हास्य वीर, अद्भुत तथा शान्त इन पांच को सर्व या सुखात्मक और करुण, रौद्र, भयानक तथा बीभत्स इन चार को सर्वथा दुःखात्मक रस बतलाया। अपने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नाट्यदर्पण में उन्होंने निम्न प्रकार से किया है -
"तष्टविभावादिप्रथितस्वरूपसम्पत्तयः शृङ्गार-हास्यवीर अद्भुन-शान्ताः पञ्च सुखात्मानः।
प्रपरें पुनरनिष्टविभावाद्युपनीतात्मानः करुण-रौद्र-बीमत्रा-भयानकाः चत्वारो दुःखात्मानः।
यत् पुनः सर्वरसानां सुखात्मकत्वमुच्यते, तत्प्रतीतिबाधितम् । प्रास्तां नाम मुख्यविभावोपचितः, काव्याभिनयोपनीत-विभावोपचितोऽपि भयानको बीभत्सः, करणो रोद्रो वा रसास्वादवतामनाख्येयां कामपि क्लेशदशामुपनयति । अतएव भयानकादिभिरुद्विजते समावः । न नाम सुखास्वादादु गो घटते ।
[नाट्यदर्पण ३-७] ३. इस उद्धरण में रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने स्पष्ट रूप से पांच रसों को सुखात्मक तथा चार रसों को दुःखात्मक कह कर रसों को दो भागों में विभक्त कर दिया है। अत: उनका मत विमज्यवादी मत कहा जा सकता है।
- १. दूसरा प्रसङ्ग जहाँ रामचन्द्र-गुणचन्द्र मभिनवगुप्त के साथ हैं. शान्तरस का प्रकरण है।
शृङ्गार-हास्य-करुण-रौद्र-वीर-भयानका: ।
बीभत्साद्भुतसंज्ञो चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः ।। नाट्यशास्त्र .१५] इस भरतवचन के भाधार पर अनेक विद्वान नाटक में केवल पाठ २सों की स्थिति मानते है। किन्तु अभिनवगुप्त प्रादि अनेक विद्वान् शान्तरस को भी नवम रस मानते हैं। उनके अनुसार इस भरत-वचन के उत्तरार्ध का पाठ 'बीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्य रसा: स्मृताः' इस प्रकार का है । अभिनवगुप्त के नाट्यशास्त्र ने छठे अध्याय पर 'अभिनवभारती' व्याख्या लिखते हुए उसके अन्त में बहुत विस्तार के साथ शान्तरस का विवेचन किया है । उनके पूर्व नाट्यशास्त्र के दूसरे व्याख्याता उद्भट ने भी शान्तरस को नाट्यरस माना है, मोर उक्त भरत वचन के पाठान्तर के मनुसार नवरसों का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि--
शृङ्गार-हास्य-करुण-रोद्र-बीर-भयानकाः। बीभत्माद्भुत-शान्ताएष नब माटो रसाः स्मृताः ।।
[उन्ट काम्पालं. ४-४] अनट् ने भी शान्त रस को माना है। बल्कि उन्होंने एक प्रेमान् रप को मोर जोड़ कर रसों की संख्या दश कर दी है। उनका श्लोक निम्न प्रकार है
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