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________________ का ५३, सू०८० ] प्रथमो विवेकः [ १४६ "पादाक्रान्तानि पुष्पाणि सोष्म चेदं शिलातलम् । नूनं काचिदिहासीना मां दृष्ट्वा सहसा गता।" पूर्वाद्धं लिंगम् । उत्तरार्द्धमनुमानम् । यथा वा यादवाभ्युदये षष्ठे गर्भावे रुक्मिणीमवलोक्य कृष्णाः "अस्यां मृगीशि दृशोरमृतच्छटायां, देवः स्मरोऽपि नियतं वितताभिलाषः । एतत् समागममहोत्सवबद्धतृष्णाम् आइन्ति मामपरथा विशिखैः कथं सः॥" इति (४) अथ प्रार्थना [सूत्र ८.]-प्रार्थना भावयाचनम् ॥५३॥ भावानां साध्यफलोचितानां रति-हर्ष-उत्सवादीनां याचनं प्रार्थना । यथा देवीचन्द्रगुप्ते चतुर्थऽङ्के चन्द्रगुप्तः"प्रिये माधवसेने ! त्वमिदानी मे बन्धमाज्ञापय । कण्ठे किन्नरकण्ठि ! बाहुलतिकापाशः समासज्यतां, हारस्ते स्तनबान्धवो मम बलाद् बध्नातु पाणिद्वयम् । पादौ त्वज्जघनस्थलप्रणयिनी सन्दानयेन्मेखला, व त्वद्-गुणबद्धमेव हृदयं बन्धं पुनर्नार्हति ।।" "फूल पैरोंसे कुचले हुए हैं और यह शिलातल गर्म हो रहा है। [इससे प्रतीत होता है कि निश्चय ही यहां कोई [स्त्री] बैठी हुई थी जो मुझको देखकर सहसा चली गई है।" इसमें पूर्वार्ड [भाग लिग है, और उत्तराई [भाग अनुमान है। अथवा जैसे यादवाभ्युदयके छठे [अजूके] गर्भामें कृष्ण कहते हैं] नेत्रोंके लिए अमृतके समान [पाल्हाद-दायिनी] इस मृगनयनीके विषयमें निश्चय हो कामदेवका उत्कट अभिलाष है। अन्यथा इसके समागमके महोत्सवके लिए उत्सुक मुझको [अपना प्रतिद्वन्दी और बाधक समझकर] यह अपने बाणों से क्यों मार रहा है ?" इसमें कामदेवके बाणोंके प्रहार रूप लिंगसे कामदेवके नायिकाके प्रति अभिलाष रूप लिंगीका अनुमान किए जाने से यह 'मनुमान' रूप अङ्गका उदाहरण है। (४) प्रार्थना अब प्रार्थना [नामक गर्भसन्धिके चतुर्ष अंगका लक्षणमादि करते हैं][सूत्र ८०] भावोंकी याचना प्रार्थना [कहलाती है। साध्य फलके अनुरूप रति, हर्ष, उत्सव प्रादि भावोंको याचना प्रार्थना [कहलाती है। जैसे देवीचन्द्रगुप्तके चतुर्थ अङ्कमें चन्द्रगुप्त [कहता है]- . [प्रिये माषवसेने ! तुम अब मेरे बन्धनको प्रामा [अपने मङ्गोंको इस प्रकार] दो हे किन्नरके समान [मधुर] कण्ठ वाली [प्रिये] ! अपनी बाहुलताका पाश मेरे गले में डालो। तुम्हारे स्तनोंका बान्धव [स्तनोंके साथ रहने वाला] हार जबरदस्ती मेरे दोनो हाथोंको बांध ले। तुम्हारे जघनस्थलका मालिंगन करने वाली मेखला मेरे पैरोंको अकर ले। किन्त पहिले की तम्हारे गणोंसे बंधे हुए हत्यको बारा बांधनेकी प्रावश्यकता नहीं , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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