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नाट्यदर्पणम
का० ५३, सू० ७६ यथा रत्नावल्यां राजा क्रमादाह
"प्रणयविशदां दृष्टि वक्त्रे ददाति न शंकिता, घट यति धनं कण्ठाश्लेपे रसान्न पयोधरौ । वदति बहुशो गच्छामीति प्रयत्नधृताप्यहो,
रमयतितरां संकेतस्था,तथापि हि कामिनी ॥ कथं चिरयति वसन्तकः ? किं खलु विदितः स्यादयं वृत्तान्तो देव्याः।" इत्यनेन रत्नावलीसमागमप्राप्त्यानुगुण्येनैव देवीशंकया वितर्काद् रूपमिति। अन्ये तु-चित्रार्थे रूपकं वचः' इति पठन्ति ।
यथा वेणीसंहारे सुन्दरकेण चित्रसंग्रामवर्णनमिति । (३) अथ अनुमानम्
[सूत्र ७६]-अनुमा निश्चयो लिंगात् । लिंगाद्धेतोर्नान्तरीयकस्य लिंगिनो निश्चयोऽनुमानम । निश्चयरूपत्वेन च ऊहरूपाया युक्तभिद्यते । यथा भासकृते स्वप्नवासवदत्ते शेफालिकामण्डपशिलातलमवलोक्य वत्सराजः
[उसका उदाहरण] जैसे रत्नावलीमें क्रमसे राजा कहता है
भयभीत होनेके कारण मुखकी भोर प्रेमपूर्वक [निर्भय होकर] देख नहीं पाती है गले में प्रालिंगन करती हुई भी प्रानन्दमग्न होकर जोरसे स्तनोंको नहीं चिपटाती है । प्रयत्नपूर्वक पकड़ने पर भी बार-बार मैं जाती हूँ यह कहती है। फिर मी संकेतवश माई हुई कामिनी अत्यन्त प्रानन्द प्रदान करती है।
वसन्तक [विदूषक न जाने देर क्यों कर रहा है [अभी तक प्राया नहीं] ? कहीं यह समाचार देवी [वासवदत्ता] को मालूम तो नहीं हो गया।" ।
इस [कथन] से रत्नावलीके साथ समागमके अनुकूल ही देवी [वासवदत्ता] को शंका से वितर्क होनेके कारण 'रूप' [अङ्गका यह उदाहरण है।
अन्य [प्राचार्य] तो-- 'विचित्र प्रर्थ वाला रूप [कहलाता है।' यह ['रूप'का लक्षण] बतलाते हैं [पठन्ति ।
जैसे वेणीसंहारमें [पंचम प्रमें] सुन्दरके संग्रामका विचित्र रूपसे वर्णन करता है [वह 'रूप' नामक अङ्गका उदाहरण है] । (३) अनुमान
अब 'अनुमान' [नामक गर्भसन्धिके तृतीय अंगका लक्षण प्रावि कहते हैं][सूत्र ७६]-लिंगके द्वारा [लिंगीका] निश्चय 'अनुमान' [कहलाता है।
लिंग प्रर्थात् हेतुके द्वारा उससे अविनाभूत [नित्य सम्बन] लिगी [अर्थात् साध्य] का निश्चय करना 'मनुमान' कहलाता है। निश्चय रूप होनेके कारण ही कह रूप 'युक्ति' [नामक मुखसन्धिके प्रङ्ग से इसका भेद है।
___ जैसे भास-विरचित स्वप्न वासवदत्तमें शेफालिका-मण्डपके शिलातलको देखकर वत्सराज [उदयन कहते हैं]
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