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________________ का० ५३, सू०७८ ] प्रथमो विवेकः [ १४७ प्रेमावनद्धहृदयःसर्व लेकेश्वरः सुदति ! सोढा । सोढा न चन्द्रहासः पुनर यमुल्लुण्ठवृत्तानाम।" / एष सीताक्षोभार्थ रावणेन दण्डः प्रयुक्तः । . मायाप्रयोगश्चात्रैव कृतकलदमण सुग्रीवानयन-रावणसीताघटनादिको निबद्ध इति। (२) अथ रूपम् [सूत्र ७८].-रूपं नानांथेसंशयः । नानारूपाणामर्थानां संशयोऽनवधारणं रूपमिव स्पम । अनियतो हयाकारो रूपमुच्यते। मुम्बसन्ध्यंगाद् युक्तेः कृत्यविचार रूपत्वेन नियताकाराया अस्य भेदः । यथा कृत्यारावणे रामो जटायुषमप्रत्यभिजानन्नाह--- "गिरिरयम्मरेन्द्रेणाद्य निलून पक्षः, कतरिपुरसुरेशैः शातितो वैनतेयः । अपरमिह मनो मे नः पितुः प्राणभूतः, किमुत बत स एष व्यपेतायुर्जटायुः ॥” इति । अन्ये त्वधीयते-'रून वितर्कवद् वाक्यम्' इति । हे सुन्दर दाँतों वाली सीते ! प्रेमसे प्राबद्ध हृदय होनेके कारण लंकेश्वर [अर्थात् मैं रावण] तो सब कुछ [अर्थात् तुम्हारी उचित-अनुचित सब बातें] सह लेगा किन्तु [यह ध्यान रखो कि लुटेरों [अर्थात् राम लक्ष्मण के आचरणोंको यह तलवार सहन नहीं करेगी।" सीताकी उरानेके लिए रावणने यह दण्डका प्रयोग किया है। और इसी [रघुबिलासमें] में लक्ष्मण सुग्रीव प्रादिके बनावटी प्रानयन और सीता रावणके बनावटी सम्मिलनके वर्णनं द्वारा मायाका प्रयोग किया गया है। (२) रूप अब 'रूप' [नामक गर्भसन्धिके द्वितीय अङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं]-- अनेक प्रकारके अर्थोका संशय [वर्णन करता] 'रूप' [कहलाता है। अनेक प्रकारके अर्थोंका [एक जगह] संशव अर्थात् किसी एकका निश्चय न कर सकना रूप [अर्थात अनियताकार] के समान होनेसे 'रूप' कहलाता है । अनियत प्राकारको 'रूप' कहा जाता है। कार्यके विचार-रूप और नियत प्राकार बाले 'युक्ति.' नामक] मुखसन्धिके अङ्गसे [अनियत प्राकार होनेके कारण इस [गर्भसन्धिके 'रूप' नामक अंग] का भेद [स्पष्ट है। [इस 'रूप' नामक अंगका उदाहरण] जैसे कृत्यारावरणमें [रावरणके द्वारा मारे गए] जटायुको न पहिचान सकने पर राम कहते हैं- . . . - क्या माज देवराज इन्द्रने इस पर्वतके पंख काट डाले हैं ? अथवा दैत्योंके राजाने बरके कारण गरुडको काट कर डाल दिया है। मेरे मन में एक और बात भी आती है कि प्रथवा ये हमारे पिताजीका प्राणभूत [घनिष्ट मित्र मरे हुए जटायु हैं। . इसमें मृत जटायुको देखकर नाना प्रकारके अर्थोका संशय दिखलाया गया है इसलिए यह 'रूप' नामक अङ्गका उदाहरण है। दूसरे लोग-वितर्क युक्त वाक्य 'रूप' है' इस प्रकार ['रूप' का लक्षण] पढ़ते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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