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नाट्यदर्पणम्
"राजा - वयस्य न खलु किश्चित् त्वयि न सम्भाव्यते ।" इति साम । संकेतादिवार्ता श्रुत्वा कटकवितरणं तु दानम् ।
[भेदो] यथा रघुविलासे पञ्चमेऽङ्क क्रमात् पवनवेषो राक्षसः प्राह" राक्षसः - प्रसीदतु देवः ।
रावण --गृहाण प्रसादम् | [पुनः प्रतीहारं प्रति ] बराहतुण्ड ! समादिश कुमार कुम्भकर्णं यथा पवनं किष्किन्धाराज्ये त्वरितमभिषिञ्च । "
एष दोत्यार्थमागतवतो बालितनयस्य चोभार्थं कृतको हनुमत्पितुः सुग्रीवाद भेदः प्रयुक्तः । यथा वा
चतुर्थेऽङ्के रावणः---
[ का० ५३, सू० ७७
"यायावरे
किमनेन वनेचरे, मां स्थावरं वरमुपास्व कुरङ्गकाक्षिं । किं वा स्तुवे तव पुरश्चतुरस्थितीनां वैदग्ध्य सौरभवती भवती प्रकाण्डम ||
सीताको वा जाजावरों को वा थावरु त्तिविवेगं लक्ग्वणनारायपद्धई वाविकरिस्सर । [को वा यायावरः को वा स्थावर इति विवेकं लक्ष्मणनाराचपद्धतिराविष्करिष्यति । इति संस्कृतम् ] |
रावणः [सरोषं चन्द्रहासं परामृश्य ]
"राजा - हे मित्र ! तुम्हारे लिए कोई बात असम्भव नहीं है ।" यह साम है । [ उसके बाद उसी द्वितीयामें] संकेतादिकी बात सुनकर कटकका देना, दान [अंगका
प्रयोग ] है ।
[भेद-प्रयोगका उदाहररण] जैसे रघुविलास में पअमाङ्क में [वार्तालापके] क्रमसे हनुमान के पिता ] पवनका वेष धारण किए हुए [मायावी] राक्षस कहता है
"राक्षस - हे महाराज ! श्राप प्रसन्न हों।
रावण -- [ हमारे] प्रसादको ग्रहण करो। [फिर प्रतिहारसे] हे वराहतुण्ड ! कुमार कुम्भकको [मेरी प्रोरसे ] श्राज्ञा दो कि पवनकुमारको शीघ्र [ जाकर ] किष्किन्धाके राज्यपर अभिषिक्त करे ।"
इसमें [रामको श्रोरसे] दूत बन कर लाए हुए अंगदके क्षोभके लिए हनुमानके पिता [ पवनकुमार] का सुग्रीवसे यह बनावटी भेद दिखलाया गया है।
श्रथवा जैसे यहीं [अर्थात् रघुविलासमें हो] चतुर्थ प्रङ्कमें रावण [कहता है] - "रावरण - हे मृगके समान नेत्रों वाली सीते । सर्वदा मारे-मारे फिरने वाले [ श्रतिशयेन यति इति यायावर: ] इस [ रामचन्द्रके पास रहने] से क्या लाभ है । सदा स्थिर एक स्थान पर] रहने वाले मुझको अपना वर बना लो। तुम्हारे सामने मैं [अपनी ] क्या बड़ाई करू. तुम तो स्वयं चतुरोकी स्थिति में प्रत्यन्त समभवार प्रसिद्ध हो ।
सीता - कौन मारा-मारा फिरने वाला या कौन स्थिर रहने वाला है इस बातको तो लक्ष्मणके बाणोंकी पंक्ति ही प्रकट करेगी ।
रावरण -- [ क्रोधपूर्वक तलवारको पकड़ता हुआ ]
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