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का० ५१-५३, सू० ७६-७७ ] प्रथ बैंक:
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[महाराज श्रभिरेव दिवसपरिवर्तनगणनाभिः किणीभूत परिभवोद्वेगदुःखस्य में हृदयस्य प्रस्मृत एवानार्यदुःशासनेन स्वात्मनः केशमहापमानवृत्तान्तः । इति संस्कृतम् ] !
निष्प्रतीकार- कालहरणात् प्रभ्मृतं नष्टमिति ब्रुवती
अथ प्रागनुभव पुनस्तमनुस्मरतीति ॥ ५० ॥
एतानि प्रतिमुखसन्धेरंगानि त्रयोदशेति || [३] अथ गर्भसन्धे रंगानि व्याख्यातुमुहिराति----
[ सूत्र ७६ ] - संग्रहो रूपमनुमा प्रार्थनोदाहृतिः क्रमः । उद्वेगो विप्लवश्येतद् गुतः कार्यष्टकम् ॥५१॥ आक्षेपावलं मार्गो सत्याहरण- तोटके | पञ्चैतानि प्रधानानि गर्भेऽङ्गानि त्रयोदश ॥ ५२||
'गुणत:' इति गुणभावेन, गुणमुपकारमपेस्य वा । तेन फलोद्भेददर्शनार्थं संग्रsोऽवश्यं निबन्धनीयः । नेपादीनि तु सुख्यानीति ।।५१-५२ (१) अथ संग्रहः
[ सूत्र ७७] - संग्रहः साम-दानादिः
साम-दाने दण्ड-भेदयोरुपलक्षणम् | आदिशब्देन सायेन्द्रजालादिसंग्रहः ।
यथा रत्नावल्याम---
हे महाराज ! इन्हीं दिनोंके परिवर्तनों को गिनते हुए मैं, हृदयमें गाँठ-सी डाल देने वाले [घाव या बार-बारकी रगड़से शरीर के किसी स्थानपर जो कडो गाँठ-सी बन जाती है उसको किरण कहते हैं.] दुःशासनके द्वारा किए गए अपने बालोंके खींचे जानेके अपमानके वृत्तांतको भूल गई थी ।
यहाँ [इस कथन में ] पहिले [केशग्रहरणके कालमें] अनुभव द्वारा प्राप्त और प्रतिकार के बिना हो कालके व्यतीत होनेके कारण भूले हुए [दुःख ] को इस प्रकार कहती हुई [ द्रौपदी ] उसको फिर स्मरण करती है । [ अतः यह 'अनुसर्पण' का उदाहरण है ] । ये प्रतिमुखसंधिके तेरह श्रङ्ग हैं |
(३) गर्भ सन्धिके तेरह अङ्ग
अब गर्भसन्धिके अंगोंकी व्याख्या करनेके लिए उनके
नाम गिनाते हैं।
[ ७६ ]- १. संग्रह, २. रूप ३. अनुमा, ४ प्रार्थना, ५. उदाहृति, ६. क्रम, ७. उग, ८. और ९. विप्लव । ये म्राठ [प्रंग] गौरण रूपमें [मा विशेष प्रयोजनवश प्रयुक्त ] करने चाहिए । ५१ ।
९. प्राक्षेप, १०. अधिवल, ११. मार्ग, १२. प्रत्याहरण और १३. तोटक । ये पाँच अंग गर्भसंधिमैं प्रधान [अंग] हैं। इस प्रकार [गर्भसंधिके] तेरह श्रंग [होते] हैं । ५२ । (१) संग्रह
[ सूत्र ७७] - [ सबसे पहिले] 'संग्रह' नामक गर्भसंधिके अंगका लक्षण करते हैं ]साम वान प्रादि [के प्रयोगको] 'संग्रह' [ कहा जाता ] है । जैसे रत्नावलीमें
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