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________________ २४ ] नाट्यदर्पणम् [ का०५, सू० ४ यद्यपि कथादयोऽपि श्रोतृहृदयं नाटयन्ति तथापि श्रङ्कोपायादीनां वैचित्र्यहेतूनामभावात् न तथा रञ्जकत्वमिति न ते नाकटम् । तथा नाटकं प्रधानपुरुषार्थेषु राज्ञां तदङ्गभूतेष्वमात्यादीनां च बहूनां व्युत्पादकमिति कतिपयव्युत्पादकानि प्रक रखादीन्यपि न नाटकमिति ।। ५ ।। प्रदर्शन होता है । इस 'प्रह्वीभाव' और 'नति' शब्दों का उल्लेख नाटक शब्दको व्युत्पत्ति के प्रसङ्गमें अवश्य किया है । अठारहवें ग्रध्याय में नाटक के विवेचन के प्रसङ्गमें- (१) नृपतीनामेव नाटकन्नाम तच्चेष्टितं प्रह्वीभावदायकं भवति [पृ० ४१३, पंक्ति ८] । (२) यद्यपि सर्वसूत्रकाराणामर्थो हृदये प्रविप्रो विनेयांश्च विनीतान करोति [ ४१४, पंक्ति २] । • (३) प्रधान पुरुषार्थे प्रधानविनेयानां, अन्यत्रान्येषां वेदयतोऽवर्नति व्युत्पत्तिं ददाति । तत एव नाटकमुच्यते । [पृ० ४४, पंक्ति ७] । इत्यादि रूप में अनेक स्थानोंपर नमन प्रह्वीभाव, नति आदि भावोंका नाटक शब्द के साग सम्बन्ध दिखलाया है । जिससे प्रतीत होता है कि अभिनवगुप्त नमनार्थक नट धातु से मी नाटक शब्दको व्युत्पत्ति मानते हैं । परन्तु प्रकृत ग्रन्थकार रामचन्द्र गुरणचन्द्र इस व्युत्पत्ति से सहमत कहना है कि घटादि गरण पठित गट धातुको ही कुछ लोगों ने 'नृतौ' के में माना है । घटादि गरण पठित धातुयोंको भित्-संज्ञा होकर उनमें मितां हो जाता है । उस दशा में नाटक पद में भी हस्व होकर 'घटक' के चाहिए । 'नाटक' शब्द उस धातुसे नहीं बन सकता है । श्रत एव व्युत्पत्तिका खण्डन किया है । रामचन्द्र - गुणचन्द्र यहाँ ग्रभिनवगुप्तकी व्याख्यापर जो ग्रापत्ति की है वह घटादि मरणस्य नट-धातुको नत्यर्थक माननेपर ही बन सकती है। यदि उससे भिन्न पहिले स्थलपर ३१० घातु संख्या वाले नट धातुको नमनार्थक मान लिया जाय तो इस प्रकारको आपत्ति नहीं उठ सकती है । सम्भव है अभिनवगुप्त उसी स्थलपर 'नट नती' पाठ मानते हों दूसरी जगह नहीं । उस दशा में उनकी व्युत्पत्ति में कोई दोष नहीं होगा । अभिनवगुप्त ने केवल नमनार्थक धातुसे ही नहीं अपितु [पृ० ४१३, अध्याय १८] नतंनायक धातुसे भी नाटक शब्दकी सिद्धि को है । नाटकं नाम तच्चेष्टितं प्रह्वीभावदायकं भवति तथा हृदयानुप्रवेशरञ्जनोल्लासनया हृदयं शरीरं च नर्तयति नाटकम्' ये दोनों प्रकारको व्युत्पत्तियाँ अभिनव गुप्तने की हैं । यद्यपि कथा श्रादि भी श्रोताओंके हृदयको [ श्रानन्दातिरेक से ] नचाते हैं किन्तु वे उपाय आदि वैचित्रयके हेतुझोंके न होनेसे इतने श्रानन्द-दायक नहीं होते हैं इसलिए उनको नाटक नहीं कहते हैं । और नाटक प्रधान पुरुषार्थ के विषयमें राजा [अर्थात् मुख्य नायक ] और उसके अंग रूपमें श्रमात्य श्रादि बहुतों को व्युत्पन्न कराने वाला होता है इसलिए [ उससे मिन्न] केवल कुछ [गिने-चुने व्यक्तियों ] को व्युत्पत्ति प्रदान कराने वाले प्रकरण श्रादि [अभिनेय-काव्योंके अन्य ग्यारहों भेद] नाटक नहीं [कहलाते ] हैं।. Jain Education International For Private & Personal Use Only नहीं हैं । उनका बजाय 'नतो' अर्थ ह्रस्यः सूत्रसे हस्व समान 'नटक' पद बनना रामचन्द्र - गुणचन्द्र ने इस www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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