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________________ का०६४, सू० ११० ] प्रथमो विवेकः [ १८५ राक्षसः-मो विष्णुगुप्त.! कुतः सन्देहः । ___ चाणक्यः-अगृहीतशस्त्रेण भवता नानुगृह्यते वृषल इत्यतः सन्देहः । तद्यदि सत्यमेव चन्दनदासस्य जीवितमिष्यते गृह्यतामिदं शस्त्रम् । राक्षस:-विष्णुगुप्त ! मा मैवम्। अयोग्या वयमस्य । विशेषतस्त्वया गृहीतस्य ग्रहणे। पुनर्बहु प्रशस्य राक्षसं चाणक्य आहचाणक्यः--किमनेन ? भवतः शस्त्रग्रहणमन्तरेण न चन्दनदासस्य जीवित मस्ति । राक्षस:-नमः सर्वकार्यप्रतिपत्तिहेतवे सुहृत्स्नेहाय । न का गतिः । एष गृह्णामि ।" एतल्लब्धस्य राक्षसस्य साचिव्यग्रहणवामताप्रशमनाद् ा तिः । अपरे तु क्रोधादेः प्राप्तस्य शमन द्युतिमामनन्ति । यथा वेणीसंहारे"भीमसेनः-राजपुत्रि ! अलं मामवलोक्य त्रासेन कृष्टा येनासि राज्ञां सदसि नृपशुना तेन दुःशासनेन | स्त्यानान्येतानि तस्य स्पृश मम करयोः पीतशेषाण्य सृजि । राक्षस---हे विष्णुगुप्त ! [इसमें] क्या संदेह है ? चाणक्य-शस्त्रको [मंत्रिपद को ग्रहण करके पाप वृषल [चंद्रगुप्त को अनुगृहीत नहीं कर रहे हैं इसलिए संदेह है। इसलिए यदि सचमुच ही चंदनदासके जीवनको [बचाना] चाहते हैं तो इस शस्त्र [मंत्रिपद को स्वीकार करो। राक्षस-हे विष्णुगुप्त ! न-न, ऐसी बात मत करो। हम इसके योग्य नहीं हैं । और विशेषकर तुम्हारे द्वारा ग्रहण किए शिस्त्र या मंत्रिपद] के ग्रहण में । हम बिलकुल ही अयोग्य है। फिर अनेक प्रकारसे राक्षसकी अत्यंत प्रशंसा करके चाणक्य कहता है--- चाणक्य----इस सबसे क्या लाभ ? [सीधी-सी बात यह है कि तुम्हारे शस्त्र ग्रहण [मंत्रिपदको स्वीकार किए बिना चंदनदासका जीयन नहीं बच सकता है। राक्षस--[मित्रको रक्षाके लिए अनिष्ट कार्य भी स्वीकार ही करना पड़ता है इसलिए] सब कार्योंको स्वीकार करनेके हेतुभूत मित्र-स्नेहको नमस्कार है। और कोई मार्ग नहीं है । इसलिए इस [मंत्रिपद] को स्वीकार करता हूँ। यह प्राप्त हुए राक्षसके सचिव पदके स्वीकार करने में विरोधका शमन है इसलिए पति [नामक ग्रंगका उदाहरण है। अन्य लोग तो प्राप्त होनेवाले क्रोध प्रादिके शमनको 'द्युति' कहते हैं । जैसे वेणीसंहारमें-- "भीमसेन- हे देवि ! मुझको देखकर डरो मत । जिस नरपशु दुःशासनने राजाओंकी सभाके बीच तुमको [बाल पकड़कर] लींचा था, उसके पीनेसे बचे हए और हाथोंमें जमे हुए इस रक्तको कर देखो! और हे प्रिये ! मेरी गदासे जिसको जंघाएँ तोड़ गली गई हैं उस प्रकारके कौरवोंके राजा [बुर्योधन ] के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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