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नाट्यदपेणम् । का० ६४, सू० ११० "राजा--साधु सचिवाग्रेसर ! साधुः
श्लाघ्या धीर्धिषणस्य रावणवश यातः सुराणां पतिः, सर्व वेत्त्युशना रसातलमहाकालान्धकारे बलिः । इत्यस्माननपेक्ष्य वैरिविजयप्राप्तीजसोः के वयं,
स्तोतारः स्वयमेव वेत्तु युवयोर्लोकस्तयोश्चान्तरम् ॥" अत्र वत्सराजस्यामात्याभ्यां प्रियहिताचरण जनिता प्रसत्तिरिति । (७) अथ कृतिः
. [सूत्र ११०]-कृतिः क्षेमम् । लब्धस्य परिपालन क्षेमः । यथा रत्नावल्याम्
"वासवदत्ता-अय्यउत्त दूरे से णादिउलं । ता तधा करेसि जधा बंधुअरणं न सुमरेदि। [आर्यपुत्र दूरेऽस्या ज्ञातिकुलम् । तत् तथा कुर्याः यथा बन्धुजन न
स्मरति । इति संस्कृतम् ] ।" अनेन लब्धाया रत्नावल्याः स्थिरीकरणम् ।। अन्ये पुनरस्य स्थाने प्राप्तस्य प्रातिकूल्यशमन द्युतिमाहुः । यथा मुद्राराक्षसे"चाणक्यः-अमात्य राक्षस ! अपीष्यते चन्दनदासस्य जोवितम् ? राजा-साधु [शाबाश] सचिवोंमें अग्रगण्य साधु [शाबाश] -
वृहस्पतिकी बुद्धि बड़ी श्लाघनीय मानी जाती है किन्तु [वे जिन इंद्र के मंत्री हैं वह] इन्द्र [अपने शत्रु] रावणके वशमें फंस गया। [लोग कहते हैं] शुक्राचार्य सब-कुछ जानते हैं किन्तु वि जिनके मंत्री हैं वह] बलि पातालके महाअंधकारमें पड़ा है । इसलिए हमारी अपेक्षा के बिना ही वैरी [पाञ्चालराज] पर विजय प्राप्त कर लेनेके कारण अपरिमित पराक्रमशील प्राप दोनोंकी प्रशंसा करनेवाला मैं कौन होता हूँ, संसार स्वयं ही तुम्हारा और उन दोनों [अर्थात् वृहस्पति तथा शुक्राचार्य] के अंतरको समझले । [अर्थात् तुम दोनोंकी प्रतिभा बृहस्पति तथा उशना से कहीं अधिक है इसमें कोई संशय नहीं है।"
___इसमें [रुमण्वान तथा यौगंधरायण] दोनों अमात्योंके द्वारा किए गए [वैरिविजय तथा सागरिका संयोजन रूप] प्रिय तथा हितके कारण वत्सराजकी प्रसन्नता [का वर्णन है [प्रतः यह प्रसाद रूप अङ्गका उदाहरण है] ।
(७) अब 'कृति' [नामक निर्वहरणसंधिके सप्तम अङ्गके लक्षण प्रादि कहते हैं][सूत्र ११०]-क्षेमको कृति कहते हैं। प्राप्तकी रक्षा करना 'क्षेम' [कहलाता है। जैसे रत्नावलीमें
"वासवदत्ता--आर्यपुत्र ! इस [सागरिका के घरके लोग [माता-पिता] बहुत दूर रहते है। इसलिए प्राप ऐसा यत्न करें जिससे इसको बंधुजनोंकी याद न आवे ।"
इस [कथन] से प्राप्त रत्नावलीको स्थिर किया जा रहा है। [अतः यह लब्ध-परिपालन रूप 'क्षेम' अङ्गका उदाहरण है।
अन्य लोग तो इस [लब्ध-रिपालन रूप क्षेम] के स्थानपर प्राप्तके प्रतिकूलताके शमन रूप युतिको [अङ्ग मानते हैं । जैसे मुद्राराक्षसमें
"चाणक्य-अमात्य राक्षस ! क्या आप चंदनदासके जीवन की रक्षा को चाहते हैं ?
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