SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कॉ० १७८, सु० २६६-६७ ] चतुर्थो विवेकः ३३ अन्यनारीव्यासंगादिना प्रस्तुतस्त्रीकृतापराधाभावेऽपितत्रागन्तकामेऽपि विलम्ब कुर्वाणे पत्यौ नायकोत्सुका सती विरहोत्कण्ठिता। अत्र प्रियागमनमचिराइवश्यम्भावि, परस्परं कलहश्च नास्तीति सर्वाभ्यो भिन्नेयमिति । अथ वासकसज्जा[सूत्र २६६] -हृष्टा वासकसज्जात्मान्यलंकृतिपरष्यति ॥ [२५] १७८ ॥ प्रियेण सह राज्यादिवसनं वासकः । तत्रोचिते उद्यमपरा । 'एष्यति' विवक्षितः कालागमनवति प्रिये स्वमण्डनवती नायिका वासकसज्जा । पूर्वासु सर्वासु विप्रलम्भशृङ्गारो ऽत्र तु सम्भोगशृङ्गार इति भेदः । [२५] १७८ ॥ अथ स्वाधीनभत्का[सूत्र २६७] -सुभगम्मानिनी वश्यासन्ने स्वाधीनभर्तृका। ___ सुभगमात्मानं मन्यते या नायिका सा वश्ये आसन्ने च पत्यौ एतदीयरूप. यौवनाद्याक्षिप्तहृदयस्वात् स्वाधीनभर्तृका । आसन्नवर्तिप्रियतमत्वेन पूर्वास्या भिन्नेयमिति ॥ प्रस्तुत स्त्रीका अपराध न होनेपर मी उस [अपनी] स्त्रीके प्रति पानेको इच्छा रखते हुए भी दूसरी स्त्रीके पास होने प्राविके कारण पतिके विलम्ब करनेपर नायफसे मिलनके लिए उत्सुक नायिका 'विरहोत्कण्ठिता नायिका' कहलाती है। उसमें प्रियका प्रागमन शीघ्र ही अवश्य होने वाला प्रौर परस्पर कलह नहीं है इसलिए यह पूर्वको सब नायिकामों से भिन्न है। अब मागे वासकसमा [नायिकाका लक्षण करते हैं] [सूत्र २६६]-पतिके प्रानेकी प्राशा होनेपर प्रसन्न होकर अपनेको सजानेमें लगी हुई नायिका 'बासकसजा' कहलाती है। [२५] १७८ । रात्रि माविको प्रियके साथ रहना 'वासक' है। उसके योग्य व्यापारमें लगी हुई [पासकसजा कहलाती है] । 'एष्यति' अर्थात् प्रियके विवक्षित कालपर प्रागमन करनेकी माशा होनेपर अपनेको सजाने में लगी हुई नायिका 'वासकसज्जा' कहलाती है। पहले कही हुई [प्रोषित्पतिका से लेकर 'विरहोत्कष्ठिता' तक पांच सब नायिकामोंमें विप्रलम्भ श्रृंगार है। इस [छठी बासकसम्जा] में सम्भोग श्रृंगार है यह इसका अन्य सब नायिकामोंसे भेर है॥ [२५] १७८ ॥ अब मागे स्वाधीनमतका [नायिकाका लक्षण करते हैं]-. [सूत्र २६७]-[पतिके] अपने वशमें और सदा समीपवर्ती होनेपर अपनेको सुपर समझने वाली नायिका स्वाधीनभत्का' कहलाती है। . जो नायिका अपनेको सुम्बर समझती है वह पतिके अपने .बा. और समीपवर्ती होनेपर उसके रूप यौवन पारिसे हरायके वशीभूत हो जानेले स्वाधीनमतका कहनाती है। ..प्रियके समीप उपस्थित होनेके भारत यह पिचनी मिर्चात् बालबच्या नापिन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy