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का० ६५, सू० ११६ ] प्रथमो विवेकः
[ १६७ हृदयमानन्दयति । अङ्गानि च स्थायि-विभावानुभाव-व्यभिचारिरूपाणि द्रष्टव्यानि । अमीषां च स्वसन्धी सन्ध्यन्तरे च योग्यतया निबन्धः। योग्यतां च रसनिवेशैकव्यवसायिनः प्रबन्धकवयो विदन्ति, न पुनः शब्दार्थग्रथनवैचित्र्यमानोन्मदिष्णवो मुक्तकवयः।
तेन एकमप्यंगं रसपोषकत्वादेकस्मिन्नपि सन्धौ द्विस्त्रिा निबध्यते । यथा वेणीसंहारे सम्फेट-विद्रवी पुनः-पुनर्दर्शितौ वीर-रौद्ररसावुद्दीपयतः । रत्नावल्यां च विलासः पुनः-पुनरुक्तः शृङ्गारमुल्लासयति । अतः परमपि निबन्धस्तु वैरस्यमावह तीति ।
तथांगद्वयेन साध्यं यदा एकनैव सिद्धयति तदेकमेव निबध्यते । यथा श्रीभीमदेवसूनोः वसुनागस्य कृती प्रतिमानिरुद्ध परिकरांर्थस्य उपक्षेपेणैव गतत्वात् न तन्निबन्धः।
एवमंगत्रयेणापि । यथा भेज्जलविरचिते राधाविलम्भे रासकांके परिकर. परिन्यासयोरुपक्षेपेणैव गतत्वान्न तन्नियन्धः । एवं परस्परान्तर्भावे चतुरङ्गोऽपि कापि सन्धिर्भवति । रसके विधानमें ही सर्वात्मना लगे हुए कविके अन्य प्रयत्नकी अपेक्षाके बिना [स्वाभाविक रूप से] जो अङ्ग उद्भूत होता है उसकी रचना ही सहवयोंको आनन्द प्रदान करती है [कृत्रिम रूपसे प्रयत्नपूर्वक सन्निविष्ट अङ्गोंको रचना उस प्रकार पाहावदायिनी नहीं होती है] मङ्ग स्थायिभाव, विभाव, अनुभाव, व्यभिचारिभाव प्रावि रूप होते हैं। इनका अपनी सन्धिमें [अर्थात् जिस-जिस सन्धिमें उनके नाम गिनाए गए हैं उस-उस सन्धिमें] तथा अन्य संधियोंमें योग्यताके कारण हो सन्निवेश किया जाता है, और उनकी योग्यताको केवल रसका सन्निवेश करनेमें तत्पर प्रबन्ध-काग्योंके निर्माता कवि ही समझते हैं। केवल शब्द और प्रर्थकी रचना-वैचित्र्यसे ही उन्मत्त हो जानेवाले मुक्तक [निर्माता] कवि नहीं समझ सकते हैं ।
इसलिए [अर्थात् योग्यता के प्राधारपर हो] रसका परिपोषक होनेपर एक ही प्रङ्ग एक ही सन्धिमें दो या तीन बार भी निबद्ध किया जाता है। जैसे वेणीसंहारमें सम्फेट तथा विद्रव अङ्गके बार-बार प्रदर्शित किए जाकर वीर तथा रौद्र रसको पुष्ट कर रहे हैं। पौर रत्नावलीमें विलास नामक प्रङ्ग बार-बार निबद्ध होकर श्रृंगाररसको परिपुष्ट करता है। इससे अधिक [अर्थात् जहाँ तक उससे रसका परिपोष होता है उससे अधिक या दो-तीन बार से अधिक रखनेपर तो विरसताको प्रकट करनेवाला हो जाता है [इसलिए किसी अङ्गका प्रत्यधिक सन्निवेश नहीं करना चाहिए ।
[इसके विपरीत] जब वो अङ्गोंके द्वारा साध्य कार्य एक ही अङ्गाके द्वारा हो सकता हो तब एक हीकी रचना की जाती है। जैसे श्री भीमदेवके पुत्र वसुनागको प्रतिमानिरुद्ध रचनामें [मुखसंधिके] परिकर [अंगके] के कार्यको उपक्षेप [अंग] के द्वारा ही सिद्धि हो जाने से उस [परिकर] को अलग रचना नहीं की गई है।
इसी प्रकार तीन अंगोंके द्वारा [साध्य कार्य जब एक ही अंगके द्वारा सिद्ध हो सकता है तब उस अंगके अतिरिक्त शेष दो अंगोंकी रचना नहीं की जाती है । जैसे भेज्जल विरचित राधाविप्रलम्भ नामक रासकांकमें परिकर तथा परिन्यास [इन दो अंगों के उपक्षेपके द्वाराही
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