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________________ १६८ ] नाट्यदपणम् । का० ६५, सू० ११६ अत्रान्तरे च केचिदेकविंशति सन्ध्यन्तराणि स्मरन्ति साम भेदस्तथा दण्डो दानं च वध एव च । प्रत्युत्पन्नमतित्वं च गोत्रस्खलितमेव च ॥ साहसं च भयं चैव भी- या क्रोध एव च । ओजः संवरणं भ्रान्तिस्तथा हेत्वधारणम् ॥ दूतो लेखस्तथा स्वप्नश्चित्रं मद इति स्मृतः । इति । एषु च केषांचित् सामादीनां स्वयमंगरूपत्वात् , केषांचिन्मत्यादीनां व्यभि. चारिरूपत्वात् , दूत-लेखादीनामितिवृत्तरूपत्वात् , अन्येषामुपक्षेपाद्यन्तर्भावाच्च न पृथग लक्षण-प्रयासः। तथाहि गर्भसन्धौ साम-दानादिरूपसंग्रहोऽङ्गम् । मत्यादयो व्यभिचारिषु लक्षयिष्यन्ते । दूत-लेखादीनामितिवृत्तरूपता दृश्यते । तया उदात्तराघवे हेत्वधारणात्मा उपक्षेपः । प्रतिमानिरुद्ध स्वप्नरूपः । रामाभ्युदये भयात्मा । वेणीसंहारे क्रोधात्मा। एवमन्येष्वप्यंगेष्वन्तर्भावः कीर्तनीय इति ॥६॥ इति श्रीरामचन्द्र-गुणचन्द्रविरचितायां स्वोपशनाट्यदर्पणविवृतौ नाटकनिर्णयः प्रथमो विवेकः ॥ १॥ गतार्थ हो जानेसे उन दोनोंकी रचना नहीं की गई है। इस प्रकार एक-दूसरेके भीतर प्रङ्गोंका समावेश हो जानेपर [ कभी-कभी ] केवल चार प्रङ्गोंका भी [कोई ] सन्धि हो जाता है। अन्य प्राचार्योके मतका खण्डन इस प्रसंगमें [हमारे प्रतिपादित पांच संधियोंके अतिरिक्त ] कुछ लोग २१ संधियों और मानते हैं। [उनके नाम निम्न प्रकार हैं १. साम, २. भेव, ३. वण्ड, ४. वान, ५. बष, ६. प्रत्युत्पन्नमतित्व, ७. गोत्रस्खलित ८. साहस, ६. भय, १०.धी अर्थात् बुद्धि, ११. माया, १२. कोष, १३. मोज, १४. संवरण, १५. भ्रान्ति, १६. हेत्ववधारण, १७. दूत, १५. लेख, १६. स्वप्न, २० चित्र तथा २१ मद। [इन २१ संषियोंको भी कुछ लोग मानते है किन्तु इनमेंसे साम प्रादि कुछके स्वयं अंग रूप होनेसे, मति मावि किन्हींके व्यभिचारिभावरूप होनेसे, दूत लेख प्राविक कथावस्तु रूप होनेसे, और अन्योंके उपक्षेप प्रादि रूप होनेसे उनके प्रलग लक्षण करनेका प्रयत्न हमने नहीं किया है। जैसेकि गर्भसंधिमें साम, दान रूप संग्रह नामक अंग माया है। मति मादिके लक्षण व्यभिचारिभावोंमें किए जावेंगे। दूत लेख प्रादि कथा-भाग रूप ही होते हैं। और उदात्त राघवमें उपक्षेप [अंग] हेत्वषारण रूप है। प्रतिमानिल्डमें [उपक्षेप.अग] स्वप्न रूप है । रामाभ्युदयमें [उपक्षेप] भय रूप है। और वेणीसंहारमें क्रोषरूप [उपोप है।[प्रतएव इन अनेक संषियोंके उपक्षेपमें अन्तर्भूत हो जानेसे उनको भी अलग कहनेकी मावश्यकता नहीं है] इसी प्रकार अन्य प्रगों में भी [इन २१ संषियोंका] अन्तर्भाव समझ लेना चाहिए। [अतः इन संषियोंको मानना उचित नहीं है । श्री रामचन्द्र गुणचन्द्रविरचित स्वनिर्मित नाट्यदर्पण की विवृतिमें नाटक-निर्णय-नामक प्रथम विवेक पूर्ण हुभा ॥१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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