________________
का० ३८, सू० ४४ ] प्रथमो विवेकः
[ १५ (१) अथ मुखं लक्षयितुमाह
[सूत्र ४४]--मुखं प्रधानवृत्तांशो बीजोत्पत्ति-रसाश्रयः।
प्रारम्भावस्थाभावित्वात् प्रधानवृत्तस्य भागो मुखमिव मुखम । 'बीजोत्पत्तेः' मुख्योपायोपक्षेपस्य, 'रसानां' च शृङ्गारादीनामाभयोऽवतरणं यत्र । प्रारम्भोपयोगी यावानर्थराशिः प्रसक्तानुपसक्त्या विचित्ररससनिवेशस्तावान मुखसन्धिरित्यर्थः ।
__ यथा 'रत्नावल्यां' प्रथमो ऽङ्कः । अत्र हि सागरिकाराजदर्शनरूपे अमात्यप्रारम्भविषयीकृतेऽर्थराशी अमात्ययौगन्धरायणस्य पृथिवीसाम्राज्यविजगीषो-रिः, वत्सराजस्य वसन्तविभावः शृङ्गारः, पौरप्रमोदावलोकनादभुतः, । तत उद्यानगमनादारभ्य पुनः शृङ्गारः इति ।
___ यथा वा 'सत्य हरिश्चन्द्रे' प्रथमोऽङ्कः। तत्र हि कुलपतिप्रारम्भविषयीकृते पृथिवी-सुवर्णदानाभ्युपगमरूपे अर्थराशौ राज्ञः प्रथमं महावराहदर्शने अद्भुतः, प्रहतहरिणीदर्शने करुणः, पुनराश्रमदशेने अद्भुतः, हरिणीवधश्रवणक्रुद्धस्य कुलपते रौद्रः, ततः प्रथिवीसुवर्णदानाभ्युपगमे राज्ञो दानवीर इति । रसप्राणो नाट्यविधिरिति रमाश्रयत्वमुत्तरसन्धिष्वपि द्रष्टव्यमिति । (१) मुखमन्धि---
प्रथ मुख [संधि] का लक्षण करनेके लिए कहते हैं-----
[सूत्र ४४] नोटको उत्पत्ति तथा रसका प्राश्रयभूत मुल्य कथाभागका [मुखके समान सबसे पहिले दिखलाई देनेवाला अंश 'मुखसंधि' कहलाता है।
कथाभागको प्रारम्भावस्थाके साथ होनेके कारण प्रधान वृत्तका [प्रारम्भिक भाग मुखके समान [सबसे पहिले दृश्य होनेसे] 'मुख' [संधि कहलाता है। बीजकी उत्पत्ति अर्थात् मुख्य उपायके {उपक्षेप] प्रारम्भका और शृङ्गारादि रसोंका प्राधय अर्थात् प्रवतरण जिसमें होता है वह मुखसंधि कहलाता है] । अर्थात् [नाटकक] प्रारम्भका उपयोगी जितना अर्थराशि और प्रसक्तानुप्रसक्त अर्थात् परम्परित रूपसे विचित्र रसोंका [जितना सनिवेश (प्रारम्भके लिए उपयोगी है। वह सब मुखसंधि [के अंतर्गत है।
जैसे रत्नावलीमें प्रथम अङ्क [मुखसंधिका उदाहरण है। क्योंकि उसमें अमात्य यौगंधरायण के प्रारम्भ | व्यापार के विषयभूत सागरिकाके राजाके द्वारा देखे जाने रूप अर्थसमुदायमें पृथिवीके साम्राज्यको प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले अमात्य योगंधरायणका वीररस, वसंत रूप [उद्दीपन] विभाव से युक्त वत्सराजका शृङ्गाररस, पुरवासियों के प्रमोदके अवलोकनसे अद्भुत और उसके बाद उद्यानमें प्रानेसे लेकर फिर शृङ्गार पाया जाता है। इस प्रकार [मुखसंधिमें विचित्र रसाश्रयत्व पाया जाता है ।
अथवा जैसे सत्यहरिश्चंद्र में प्रथम प्रामुखसंषिका उदाहरण है। उसमें कुलपति के प्रारम्भफे विषयभूत पृथिवी और सुवर्णदानके स्वीकार करने रूप अर्थसमुदायमें, राजाको प्रथम महावराहके दर्शन रूप अद्भुत, [उसके बाद मारी गई हरिणीको देखनेपर करुण, उसके बाद प्राश्रमके देखनेपर अद्भुत, फिर हरिणीयष [के समाचार को सुनकर बुरा हए फुलपतिका रौद्र और फिर पृथिवी और सुवर्ण का दान करनेपर राजाका दानवीर [रस पाया है। [इस प्रकार इस नाटकमेंभी मुखसंघिमें नाना रसोंका विचित्र सनिवेश किया गया
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org