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नाट्यदर्पणम् [ का० ६५, सू० ११५ "अग्निः--वत्स ! उच्यतां किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि ? रामः-भगवन् ! अतः परमपि प्रियमस्ति ? इति ।" यथा वा 'यादवाभ्युदये"युधिष्ठिरः—देव ! किमतःपरं प्रार्थ्यते यदूनाम् ? समुद्रविजयः-[साश्चम् ] किमतः परमपि प्रार्थनीयमस्ति ?
त्रातो घोषभुवां विधृत्य मधुजित् , कंसः क्षयं लम्भितः, सम्प्रत्येव विनिर्मितं मगधभूभतु: कबन्धं वपुः । पादाक्रान्तमजायतार्धभरत तद् ब्रूहि नः किं परं ?
श्रेयोऽस्मादपि पाण्डवेश ! पुनरप्याशास्महे यद्वयम्॥" अनयोरप्रनिगृहीते वरे काव्यसंहारः । तथा इन्दुले खायां नाटिकायां राज्ञी नायिकामिन्दुलेखामाह
"ईदिसीए तुह इमाए कुलाणुसरिसीए सीलसंपत्तीए संमुहीकदस्स मे हिदयस्स उववन्नो य्येव समुचिदाए पडिवत्तीए अयं अवसरो, ता मम य्येव पियं करिती वरेसु जं ते समी हिदं।
[ईदृश्या तवानया कुलानुसदृश्या शीलसम्पत्त्या सम्मुखीकृतस्य मे हृदयस्य उपपन्न एव समुचितया प्रतिपत्त्या अयमवसरस्तत् ममैव प्रियं कुर्वन्ती वृणुष्व यत् ते समीहितम् । इति संस्कृतम् ] ।
नायिका-ईदिसस्स देवीपसायस्स न दाव अधियं सरिसं किं पि भविस्सदि, जं वरइस्सं । तधा वि को देवीए पसादाणं पज्जतकामो? ता पियदसणं मे पसादीकरेदु देवी। भी संतुष्ट न होकर अग्नि [रामसे] कहता है
"अग्नि-वस्स ! कहो तुम्हारा और क्या प्रिय करू? राम-भगवन् ! क्या इससे भी अधिक प्रिय हो सकता है।" [यह वरको स्वीकार न करनेके रूपमें 'काव्यसंहार की रचना की गई है। अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें-- "युधिष्ठिर-देव ! यदुवंशियोंकेलिए इससे अधिक और क्या चाहते हैं ? समुद्रविजय [प्राश्चर्य-सहित] क्या इससे भी अधिक प्रार्थनीय हो सकता है ?
अहीरोंके यहां रखकर कृष्णकी रक्षा कर ली, कंसका नाश कर दिया और अभी मगधराज [जरासंध] के शरीरको [सिर काटकर] कबंध [धड़मात्र बना दिया, भाषा भारत देश अपने अधीन हो गया, तो हे पाण्डवराज ! बतलाइए कि इससे अधिक और क्या कल्याण हो सकता है जिसकी हम कामना करें ?"
इन दोनों [उदाहरणों] में वरके स्वीकार न करने में 'काव्यसंहार' हुमा हैं। और इन्दुलेखा नाटिकामें रानी नायिका इन्दुलेखासे कहती है
"रानी-तुम्हारी अपने कुलके अनुरूप इस प्रकारको शील-सम्पत्तिसे प्रसन्न हुए मेरे हृदयमें उपयुक्त विश्वाससे यह अवसर प्राप्त हुआ है इसलिए मेरे ही प्रिय कार्यको करती हुई जो तुम्हारी इच्छा हो वह वर मांग लो।
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