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________________ १६४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ६५, सू० ११५ "अग्निः--वत्स ! उच्यतां किं ते भूयः प्रियमुपकरोमि ? रामः-भगवन् ! अतः परमपि प्रियमस्ति ? इति ।" यथा वा 'यादवाभ्युदये"युधिष्ठिरः—देव ! किमतःपरं प्रार्थ्यते यदूनाम् ? समुद्रविजयः-[साश्चम् ] किमतः परमपि प्रार्थनीयमस्ति ? त्रातो घोषभुवां विधृत्य मधुजित् , कंसः क्षयं लम्भितः, सम्प्रत्येव विनिर्मितं मगधभूभतु: कबन्धं वपुः । पादाक्रान्तमजायतार्धभरत तद् ब्रूहि नः किं परं ? श्रेयोऽस्मादपि पाण्डवेश ! पुनरप्याशास्महे यद्वयम्॥" अनयोरप्रनिगृहीते वरे काव्यसंहारः । तथा इन्दुले खायां नाटिकायां राज्ञी नायिकामिन्दुलेखामाह "ईदिसीए तुह इमाए कुलाणुसरिसीए सीलसंपत्तीए संमुहीकदस्स मे हिदयस्स उववन्नो य्येव समुचिदाए पडिवत्तीए अयं अवसरो, ता मम य्येव पियं करिती वरेसु जं ते समी हिदं। [ईदृश्या तवानया कुलानुसदृश्या शीलसम्पत्त्या सम्मुखीकृतस्य मे हृदयस्य उपपन्न एव समुचितया प्रतिपत्त्या अयमवसरस्तत् ममैव प्रियं कुर्वन्ती वृणुष्व यत् ते समीहितम् । इति संस्कृतम् ] । नायिका-ईदिसस्स देवीपसायस्स न दाव अधियं सरिसं किं पि भविस्सदि, जं वरइस्सं । तधा वि को देवीए पसादाणं पज्जतकामो? ता पियदसणं मे पसादीकरेदु देवी। भी संतुष्ट न होकर अग्नि [रामसे] कहता है "अग्नि-वस्स ! कहो तुम्हारा और क्या प्रिय करू? राम-भगवन् ! क्या इससे भी अधिक प्रिय हो सकता है।" [यह वरको स्वीकार न करनेके रूपमें 'काव्यसंहार की रचना की गई है। अथवा जैसे यादवाभ्युदयमें-- "युधिष्ठिर-देव ! यदुवंशियोंकेलिए इससे अधिक और क्या चाहते हैं ? समुद्रविजय [प्राश्चर्य-सहित] क्या इससे भी अधिक प्रार्थनीय हो सकता है ? अहीरोंके यहां रखकर कृष्णकी रक्षा कर ली, कंसका नाश कर दिया और अभी मगधराज [जरासंध] के शरीरको [सिर काटकर] कबंध [धड़मात्र बना दिया, भाषा भारत देश अपने अधीन हो गया, तो हे पाण्डवराज ! बतलाइए कि इससे अधिक और क्या कल्याण हो सकता है जिसकी हम कामना करें ?" इन दोनों [उदाहरणों] में वरके स्वीकार न करने में 'काव्यसंहार' हुमा हैं। और इन्दुलेखा नाटिकामें रानी नायिका इन्दुलेखासे कहती है "रानी-तुम्हारी अपने कुलके अनुरूप इस प्रकारको शील-सम्पत्तिसे प्रसन्न हुए मेरे हृदयमें उपयुक्त विश्वाससे यह अवसर प्राप्त हुआ है इसलिए मेरे ही प्रिय कार्यको करती हुई जो तुम्हारी इच्छा हो वह वर मांग लो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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