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________________ प्रथमो विवेकः विना वाहनपोताभ्यां मुच्यतां सर्वबन्धनम् । पूर्णप्रतिज्ञेन मया केवलं बध्यते शिखा ॥” अत्रमुखे यदुपक्षिप्तम्- 'बध्यः को नेच्छति शिखां मे' इति तदेव भंग्यन्तरे उपन्यस्तमिति । उद्देशोक्तसंज्ञातः संज्ञान्तरेण यल्लक्षणविधानं सर्वत्र तच्छन्दोनुरोधादिति । (१३) अथ काव्यसंहारः [ सूत्र ११५ ] - वरेच्छा काव्य संहारः । -- का० ६५, सू० ११५ ] ईप्सितं दातुमभिलाषो वरेच्छा । तज्जनितो 'भूयः किं ते प्रियमुपकरोमि ' इति प्रश्न इत्यर्थः । स च ग्रहीतरि अप्रतीच्छति, प्रतीच्छति च सम्पादयितुभूयसीमिच्छां दर्शयितुं निबध्यते । तत्र सति सर्वस्मिन्नेवेप्सिते सम्पन्ने प्रस्तुतं काव्यमेव संह्रियते इति ' काव्यसंहारः' । यथा 'कृत्यारावणे' सीतारक्षणे रामस्य प्रिये हिते च महति कर्मणि कृतेऽपि - असन्तुष्यन् अग्निंराह [ १६३ वाहन तथा पोत [ जहाज ] को छोड़कर अन्य सबके बंधनोंको खोल दिया जाय । प्रतिज्ञापूर्ण हो जानेके काररण केवल मैं अब अपनी चोटी को बाँधता हूँ ।" इसमें मुखसंधिमें जो यह जो कहा था कि 'बधके योग्य कौन व्यक्ति मेरी शिखाको बंधने नहीं देना चाहता है उसीको प्रकारान्तरसे फिर कहा गया है [ इसलिए यह पूर्ववाक्य रूप श्रङ्गका उदाहररण है ] । निर्वहरण - सन्धिके चौदह अंगोंके नाम गिनाते समय पूर्वभाव नामसे बारहवें अंगका निर्देश किया गया था। 'प्राग्भाव' नामके किसी अंगका उल्लेख उद्देश - कारिकाओं में नहीं किया गया था । किन्तु यहाँ लक्षरण करते समय 'पूर्वभाव' का लक्षण न करके 'प्राग्भाव' का लक्षण किया गया है । यह 'प्राग्भाव' 'पूर्वभाव' का ही दूसरा नाम है । श्लोक में 'पूर्वभाव' शब्दका प्रयोग छंदकी दृष्टिसे ठीक नहीं बैठता था इसलिए ग्रंथकारने उनके स्थानपर 'प्राग्भाव' शब्दका प्रयोग कर दिया है । इसी बातको ग्रंथकार अगली पंक्ति में लिखते हैं- उद्देश [काल ] की संज्ञाको छोड़कर अन्य नामसे लक्षरणका कथन करना सर्वत्र छन्दके अनुरोधसे किया गया है। (१३) अब 'काव्य संहार' नामक निर्वहलसंधिके तेरहवें श्रृङ्गका लक्षण प्रादि कहते हैं ][सूत्र ११५] वर [ प्रदान करने] की इच्छा काव्यका उपसंहार [कहलाता ] है । प्रभीष्ट वरको प्रदान करनेका प्रभिलाष वरेच्छा [ कहलाता ] है । उससे उत्पन्न 'तुम्हारा और कौनसा प्रिय कार्य करू" इस प्रकारका प्रश्न [काव्यसंहार कहलाता है ] यह अभिप्राय है । वह (१) गृहीताके द्वारा ग्रहण न करनेपर और (२) प्रथमा स्वीकार करने पर देनेवालेकी और अधिक इच्छाको दिखलानेके लिए [दो कारणोंसे] निबद्ध किया जाता है। उस [बर प्रदानके] होनेके बाद समस्त कामनाओंके पूर्ण हो जानेसे काव्य ही समाप्त हो जाता है इसलिए [ इसको ] 'काव्यसंहार' [ कहा जाता ] है । जैसे कृत्यारावरण में रामके प्रिय तथा हित सीतारक्षरण रूप महान कार्यके कर चुकने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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