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________________ २६० ] नाट्यदर्पणम का ६६, सू० १४६ एतच्च परमार्थतः पांचालोच्छेदपरं यौगन्धरायणेनावबुद्धम ! वासवदत्तया सम्भ्रमकनाम्ना यौगन्धरायणानुचरेण च मौख्यान्नावगतम् ! यथा वा व्यसनिना राजपुत्रेण किं सुखमिति पृष्टे मन्त्रिपुत्रशोच्यते-- __ "सर्वदा योऽक्षविजयी सुरासेवनतत्परः । - तस्यार्थानां सुखानां च समृद्धिः करगामिनी ॥" एतदपि मूर्खत्वात् प्रियांशे पाशकविजय-मद्यपानरूपे गृह्यते, न त्विन्द्रियविजयदेवताराधनरूपे हितांशे इति । अन्ये तु बालोत्कण्ठितादीनामसम्बद्धकथाप्रायमसत्प्रलापमिच्छन्ति । यथा-- “एक त्रीणि नवाष्ट सप्त षडिति व्यालुप्तसंख्याक्रमाः, वाचः क्रौंचरिपोः शिशुत्वविकलाः श्रेयांसि पुष्णन्तु वः ।।" यथा वा रघुविलासे सीताविरहितो रामः - "अरण्ये मां त्यक्त्वा हरिण ! हरिणाक्षी क्व नु गता, पराभूतो दृष्ट्वा कथयसि न चेन्मा स्म कथय । अरे क्रीडाकीर ! त्वमपि वहसे कामपि रुषं, यदेवं तूष्णीकामनुसरसि वाचंयम इव ॥” इति । एकके शिविर में स्थित] देवीको पाप लोग बचा लो [इस बातका समाचार देने के लिए मैं] रुमण्वान् स्वयं पाया हूँ। पाञ्चालराजके नाशके लिए यह [रुमण्वानका प्रयोग है] इस बातको यौगन्धरायणने समझ लिया किन्तु वासवदत्ता तथा यौगन्धरायणके सम्भ्रम नामक अनुचरने मूर्खतावश नहीं समझा। ____ अथवा [उसी मनोरमावत्सराजमें] व्यसनी राजपुत्रके द्वारा सुख क्या है यह पूछे जाने पर मन्त्रिपुत्र कहता है जो सर्वदा अपनी इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करने वाला है और देवताओंकी सेवामें तत्पर रहता है उसके लिए प्रर्थ और सुखकी समृद्धि हस्तगत रहती है। [यह इस श्लोकका विवक्षित अर्थ है किन्तु व्यमनी राजपुत्र] अपनी मूर्खताके कारण अपने प्रिय अंशमें [प्रक्षविजयी पदसे] चूतकी विजय, तथा [सुरासेवन पदसै] मध-सेवन अर्थ को लेता है। इन्द्रियविजय और देवताराधन रूप हितांशको नहीं। दूसरे लोग तो असम्बद्ध कथायुक्त बालकोंकी उत्कण्ठा प्रादिके वर्णनको प्रसत्प्रलाप मानते हैं। जैसे । क्रौञ्चारि कातिकेयको शिशुत्वके कारण असम्बद्ध एक, तीन, नौ, पाठ, सात, छ: प्रादि संख्या के क्रमसे रहित वाणी तुम्हारा कल्याण करें। अथवा जैसे रघुविलासमें सीतासे विरहित राम [कहते हैं हे हरिण ! हरिणाक्षी [सीता] वनमें मुझको छोड़कर कहाँ चली गई है ? क्या तुम मुझको देखकर डर जानेसे नहीं कह रहे हो, यदि ऐसी बात हो तो डरो मत, बतला दो । अरे कीडाके तोते ! क्या तुम भी नाराज हो गए हो फि मौनियों के समान इस प्रकार चुप्पी धारण किए हुए हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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