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________________ का० ६६, सू० १४८ ] द्वितीयो विवेकः [ २५६ मारीचः-स्वामिन् ! जीवतो रामस्य परिभव इत्यशक्यमेतत् । न खलु तापस इति तमवज्ञातुमर्हति देवः। अन्यदेव वस्त्वन्तरं किमपि तत् । रावणः-[ सक्रोधम् ] आः किं नाम वस्त्वन्तरं तत् ? मूढ़ ! युक्त्यैव क्षत्रबन्धोः परिभवमसमं जीवतः कर्तुमिच्छन्, मायासाहायके त्वं निपुणतर इति प्रार्थये नासमर्थः । यच्चान्यत् तत्र बज्रप्रहतिमसृणितस्फारकेयूरभाजः, सज्जास्त्रैलोक्यलक्ष्मीहठहरणासहा बाहवो रावणस्य ॥" अत्र मारीचवचनं परमार्थतो हितमपि रावणेन नावगतम् ।। मूर्ख प्रति, यथा भीमटविरचिते 'मनोरमावत्सराजे' वत्सराजाभ्युदयशंसी रुमण्वान् पांचालमुच्छेत्तुकामस्तस्य कृतकभृत्यतां श्रितो विश्वासोत्पादनार्थं वत्सराजान्तरःपुरमादीप्य यौगन्धरायणप्रमुखानाह "कौशाम्बी मम हस्त एव परया शक्त्या मया स्वीकृतः, पंचालाधिपतिः प्रभुः स भवतां न ज्ञायते क्वाधुना। नन्वादीपित एप मोहितपरानीकेन लावाणको, देवी सम्प्रति रक्ष्यतामयमहं प्राप्तो रुमण्वान् स्वयम् ॥" ही है । इसलिए उसका अपहरण ही सबसे पहले करना चाहिए। स्त्रीके अपहरणसे अधिक पुरुषके लिए अपमानका दूसरा स्थान नहीं है । इसमें मारीच सहायता करे ऐसा मैं चाहता हूँ। . मारीच-स्वामिन् ! रामके जीते रहते उसका अपमान हो सके यह असम्भव है। वह कोई साधारण तापस है यह समझकर उसकी अवज्ञा नहीं करनी चाहिए। वह कुछ और ही चीज है। रावण-[सक्रोध होकर अरे वह कौनसी दूसरी चीज है ? मूर्ख -- ___ उस नीच क्षत्रियके जीते रहते ही युक्तिसे उसका अपमान करनेके लिए ही, तू षोखा देनेमें अधिक चतुर है ऐसा समझकर तुमसे कहा था, मैं असमर्थ हूँ ऐसा मत समझना। और वह जो कुछ और है उसके लिए बचके प्रहारोंसे चिकने हुए बाजूबन्दोंको धारण करने वाले और तीनों लोकोंकी लक्ष्मीको बलात हरणकर सकनेमें समर्थ, मेरे [रावणके] बाहु तैयार हैं। यहां मारीच का वचन वास्तवमें हितकर होनेपर भी रावणने [ हितकर ] नहीं समझा। मूर्खके प्रतिजैसे भीमट [कवि विचित मनोरमावत्सराजमें वत्सराजकी उन्नति की कामना करने वाले [मन्त्री] हमवान् पाश्चालराजको नाश करनेकेलिए उसके बनावटी भृत्य बनकर उसको विश्वास दिलाने के लिए वत्सराजके [लावारणक बनमें स्थित होने के समय] अन्तःपुरमें प्राग लगाकर यौगन्धरायण प्राविसे कहते हैं- कौशाम्बीको मेरे हायमें ही समझो। अत्यन्त शक्तिशाली होनेके कारण [ उसपर नीतिसे ही विजय प्राप्त करनी होगी ऐसा मानकर मैंने पाञ्चालराजको [बनावटी रूपसे) अपने स्वामी रूपमें स्वीकार किया है। प्रापके में प्रभु [उदयन ने मालूम कहाँ हैं। शकी सेनाको भ्रममें अलने वाले मैंने इस लावाणक [वन] को प्राग लगा दी है, प्रब [इस लावा. १. महति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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