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________________ २५८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ६६, सू० १४८ प्रयोजनान्तरेण प्रयुक्तं यद्वचनमन्यस्य, अन्यस्य हास्य-वञ्चना-रोषकारणं तद्वअनाहेतुत्वाच्छलम् । यथा "कस्स व न होइ रोसो दहण पियाए सव्वणं अहरं . सभमरपउमग्याइरि वारियवामे सहसु इण्हि ॥ [कस्य वा न भवति रोषो दृष्ट्वा प्रियायाः सुव्रणमधरम् । सभ्रमरपद्माधायिणि वारितवामे सहस्वेदानीम् ॥ इति संस्कृतम् ]।" एतद्वचः सख्या भर्तृ प्रत्यायनप्रयोजनेनोक्तं विदग्धजनस्य हास्यं श्वशुरादेवश्चनां सपत्न्या रोष जनयतीति ॥ [३३] १८ ॥ (७) अथासत्प्रलापः सत्र १४८]--असत्प्रलापस्तत्त्वेन हितं यन्नावगम्यते । परमार्थतो हितमुपकारपर्यवसायि यद्वचनं अविवेचकत्व-मौाभ्यां तत्त्वेन हितत्वेन नैवावबुध्यते अविवेचकैम खैश्च, तत् तौ प्रति असतो असाधुभूतस्य प्रलपनमसत्प्रलापः। तत्राविवेचकं प्रति यथा रामाभ्युदये द्वितीयेऽङ्क "रावण:-प्रायशः श्रुतमेव भवद्भिर्यथा कलत्रमात्रसाधनोऽसौ तापसरतदपहार एव तावन्निरूप्यताम् । न च कलत्रापहरणाहते पुरुषास्यापरं परिभवस्थानमस्ति । तत्र मारीचेन साहायक क्रियमाणमिच्छामि।। . अन्य प्रयोजनसे प्रयुक्त किया गया दूसरे व्यक्तिका जो वचन दूसरेके लिए हास्य वचना अथवा रोषका कारण हो वह वञ्चनाका हेतु होनेसे 'छल' कहलाता है । जैसे अपनी प्रियाके अपरमें [ दन्तक्षतका ] घाव देखकर किसको क्रोध नहीं पाता है ? इसलिए मना करनेपर भी न मानने वाली, और भ्रमर-युक्त कमलको सूंघने वाली प्रव [भ्रमरके काट लेनेसे बने प्रषरवणके कारण अपने पतिके क्रोध को भोग । यह वचन सखीने [नायिकाको रक्षाके लिए उसके] स्वामीको [यह विश्वास दिलाने के लिए [कि इसके परपुरुष-द्वारा प्रवरतरण नहीं हुआ है अपितु भ्रमरके काट लेनेसे वरण हमा है] कहा जानेपर भी विदग्ध लोगोंमें हास्य, श्वशुरादिको वञ्चना तथा सपत्नीमें रोष उत्पन्न करता है । [३३] ९८॥ (७) असत्प्रलाप नामक सातवाँ वीथ्यंग : प्रब असत्प्रलाप [नामक सप्तम वीभ्यङ्गका लक्षणादि कहते हैं । [सूत्र १४८]-जिस हितकारी वचनको यथार्थ रूपमें ग्रहण नहीं किया जाता है वह 'प्रसत्प्रताप' है। वास्तवमें हितकारी प्रर्थात् लाभ पहुंचने वाला होनेपर भी [सुनने वालेके] अविवेकत्व अथवा मूर्खताके कारण हितकारी रूपसे ग्रहण नहीं किया जाता है वह उन दोनोंके प्रति प्रसत् अर्थात् अहितकर प्रलापके समान होनेसे 'असत्प्रलाप' [कहलाता है। . उनमेंसे प्रविवेचकके प्रति [असत्प्रलापका उदाहरण] जैसे रामाभ्युदयके द्वितीयांकमेंरावण-तुमने यह तो शायद सुना ही है कि उस तापसके पास केवल एक स्त्री Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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