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________________ का० २०, सू० १७ ] प्रथमो विवेकः [ ४७ 'पश्चसंख्यः' इति अत्यन्तस्तोकतायां पाड्डाः । सर्वोत्कर्षेण दश । मध्यमवृत्या पट, सप्त, अष्टौ, नव 'इत्यङ्कसंख्याया भेदाः । यदा एकैकस्यामवस्थायां एकैकोडस्तदा पचाङ्काः । यदा तु कार्यवशेन काव्यवस्था उपक्रमोपसंहाराभ्यां छिद्यते तदा षटू । एक उपक्रमाङ्कः, एक उपसंहाराङ्कः । अपरावस्थाचतुष्टयस्य तु चत्वारः । एवं कृत्वा अष्टौ नव च । सर्वावस्थाभेदे तु दशेति । यदापि कार्यबहुत्वात् काव्यवस्था व्यङ्का तदाप्युत्कर्षतो दशेव । एकस्याः कस्याश्चिदेकाङ्ककरणात् । एकस्यां चावस्थायामङ्कत्रयं दृश्यते । यथा वेणीसंहारे गर्भसन्धौ प्राप्त्याशावस्थालंकृते तृतीय- चतुर्थ पचमा श्रङ्काः । न्यूनत्वे त्वङ्कानामेकाङ्क तापि स्यात् । तथा च पञ्च सन्धयो नोपसंहियेरन् । श्रधिक्ये पुनरनियत संख्यत्वं स्यादिति मध्यमा वृत्तिराश्रीयते । नाटिका-प्रकरयोस्तु चतुरङ्कत्वम । कस्याश्चिदवस्थाया अवस्थान्तरे मिश्रणादिति ॥ २० ॥ मण्डप भी सामान्य नाट्य-मण्डपने बहुत बड़ा बनता है। इसलिए उसमें अभिनय अव्यक्त नहीं होता है । मानव-चरितका अभिनय प्रदर्शित करने के लिए जो मध्यम मण्डप बनता है उसमें अधिक पात्रोंके श्रा जानेपर अभिनय प्रव्यक्त हो जाता है। इसलिए नाटकादिमें दस पात्रोंसे अधिक पात्रोंके एक साथ रङ्गभूमिमें धानेका निषेध है । 'पञ्जा' 'पाँच प्रङ्क वाला' इससे कमसे कम पाँच अजू हों [ यह अभिप्राय है ] । सबसे अधिक दस [ हो सकते हैं] । मध्यम दशामें छः, सात, म्राठ या नौ तक की संख्याके भेद हो सकते हैं । जब [पूर्वोक पाँच अवस्थाओंमेंसे ] एक-एक अवस्थाके लिए एकएक अङ्क हो तब पाँच ध हुए। जब कार्यवश किसी अवस्थाका उपक्रम और उपसंहार [अलग-अलग दो प्रोंमें] बंट जाता है तब छः म हो जाते हैं। एक उपक्रमाङ्क । दूसरा उपसंहाराङ्क । और शेष चारों अवस्थाओंोंके चार म [मिलकर छः म हो जाते हैं] । viaf [it] प्रवस्थाओंके [उपक्रम उपसंहार रूपमें अलग-अलग मोंमें] बंट जानेपर तो [मिलाकर ] दस ध हो सकते हैं। और अब कार्यके प्राधिक्यके कारण किसी अवस्थामें तीन प्रकू हो जायें तो भी [सब मिलाकर ] प्रषिक-से-अधिक बस ही प्रङ्क होने चाहिए। [ इसके लिए ] किसी [अन्य] अबस्था मैं एक ही अङ्क करके [कुल संस्था इससे अधिक नहीं होनी चाहिए]। बस ही होने चाहिए। एक अवस्थामें तीन प्र भी पाए जाते हैं। जैसे 'बेरणीसंहार' में प्राप्त्याशा [रूप तीसरी अवस्था] से युक्त 'गर्भसंधि' [नामक तृतीय संधि-भेव] में [नाटकके] तृतीय चतुर्थ और पञ्चम [ तीन ] [ लग गए हैं] कम होनेपर तो एक अजू भी हो सकता है। किन्तु उससे पाँचों संघियों का प्रदर्शन नहीं हो सकेगा । और [इससे भी] अधिक होनेपर संख्याकी कोई प्रबधि - नहीं रहेगी इसलिए मध्यम मार्गका अवलम्बन करना उचित है। नाटिका और प्रकररणीमें तो चार अङ्क होने चाहिए। किसी अवस्थामें दूसरी व्यवस्थाका मिश्रण कर देनेसे [पचिके स्थानपर चार ध हो जायेंगे ॥२०॥ १. इत्यपसंख्या शुभेदाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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