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________________ ४५] दर्पणम् अयाङ्कानिबन्धनीयमाह [ सूत्र १८ ] - श्रभिघातः प्रधानस्य नेतुर्ग्रथ्यो न कुत्रचित् । [ का० २१, सू० १८ बन्धः पलायनं सन्धिर्योज्यो वा फललिप्सया ||२१|| अभिघातः शोणितहेतुः प्रहारः । प्रधानस्य मुख्यस्य । तेन पताका प्रकरीनायकादीनां प्रथयत एव । कुत्रचिदिति विष्कम्भकादावपि । सामान्योक्तावप्यभिघातः परपरकृतः । तेन यदस्माभिः सत्यहरिश्चन्द्रे हरिश्चन्द्रेण देवतोपहारार्थ स्वयं स्वमांसोत्कर्तनं निबद्धं न तद् दोषाय । अह्नों में प्रदर्शनीय तत्व पिछली दो कारिकाओं में प्रङ्कका लक्षण करनेके बाद अब अगली कारिका में ग्रन्थकार यह दिखलाना चाहते हैं कि श्रङ्कों में किन-किन बातोंको नहीं दिखलाना चाहिए। जिन बातों कामों में दिखलाने का निषेध है उनमें प्रधान नायकका 'श्रभिघात' सबसे मुख्य है । प्रभिघात शब्दका प्रथं 'रक्त प्रवाहित कर देनेवाला प्रहार' किया गया है। प्रधान नायकका अभिघात तो न केवल प्रङ्कों में अपितु विष्कम्भक आदि में भी कहीं किसी प्रकार नहीं दिखलाना चाहिए । उसका बन्धन पलायान आदि भी सामान्य रूपसे नहीं दिखलाना चाहिए । किन्तु विशेष स्थिति में यदि बन्ध आदिके द्वारा विशेष फलकी सिद्धि हो तब उनको प्रदर्शित किया जा सकता है । इसी बात को इस कारिकामें निम्न प्रकार लिखा है Jain Education International अब प्रङ्कों में न रखने योग्य [अर्थी] को कहते हैं [ सूत्र १८] - प्रधान नायकका अभिघात [ शोणित-जनक प्रहार ] कहीं भी [अर्थात् में तो नहीं ही दिखलाना चाहिए किन्तु उसके अतिरिक्त निष्कम्भक श्रादिमें भी ] नहीं दिखलाना चाहिए। [ प्रधान नायकका ] बन्धन पलायन अथवा सन्धि [ भी सामान्य रूप से नहीं दिखलाना चाहिए किन्तु ] विशेष फलकी प्राप्तिकी इच्छा से प्रदर्शित किया जा सकता है । २१ । 'प्रभिघात' प्रर्थात् रक्तको प्रवाहित करनेवाला प्रहार । प्रधान प्रथवा मुक्य [ नायक ] का [ नहीं दिखलाना चाहिए] इस [ कथन ] से पताका नायक और प्रकरी नायक शादि [ प्रमुख्य नायकों ] का [ श्रभिघात भी ] प्रथित किया ही जाता है [ यह अभिप्राय है ] । 'कुत्रचित्' इससे विकम्भक प्रादिमें भी [ नहीं दिखलाना या वरिंगत करना चाहिए वह अभिप्राय है । प्रभिघात स्वकृत प्रौर परकृत दोनों प्रकारका हो सकता है । विशेष निर्देशके बिना ] सामान्य रूपसे कथित होनेपर भी यहाँ परकृत [ का ही ग्रहरण करना चाहिए]। इसलिए हमने 'सत्यहरिश्चन्द्र' [नाटक] में देवताको उपहार रूपमें चढ़ाने के लिए हरिश्चन्द्र के ही द्वारा स्वयं अपने मांस काटनेका जो वर्णन किया है वह [ परकृत प्रभिधात न होवेके कारण ] दोवाधायक नहीं है। इसमें प्रधान नायक के श्रभिघातका निषेध करते हुए वृत्तिग्रन्थ में पताका नायक तथा प्रकरी नायकके अभिघातकी अनुमति दे दी गई है। इन पताका और प्रकरी नायकोंके लक्षण आगे किए जायेंगे । किन्तु इस प्रकरण के अर्थको समझने के लिए संक्षेप में उनका ज्ञान प्रावश्यक है । 'व्यापि प्रासङ्गिककं वृत्तं पताकेत्यभिधीयते' यह 'पताका' का लक्षण, और 'प्रासङ्गिक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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