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का० २१, सू०१८ ] प्रथमो विवेकः
[ ४६ . परेणापि विपक्षण कृतो निबिध्यते । तेन नागानन्दे गरुड़कृताभिघातस्य जीमूतवाहनस्य साक्षात्करणं परोपकाराय सत्त्वाधिक्येन विशेषतो रसपुष्टिमावहति । योऽपि चास्माभी रघुविलासे शक्तिसक्तवक्षसो लक्ष्मणस्य प्रवेशः कृतः, सोऽपि न दोषाय । सीताऽऽनयनलक्षणफलसम्बन्धेन रामस्य मुख्यत्वात् । 'बन्ध' इति परैर्ग्रहणम् । यथा वासवदत्तानृत्तवारे वत्सराजस्य । पलायनमपसरणम् । यदाहुः'अशक्ये सर्वमुत्सृज्यापगच्छेत्' । दृष्टा हि जीवतः पुनरावृत्तिर्यथा सुयात्रोदयनयोः । इति । 'सन्धिः ' सन्धानम् । तदुक्तम्
"प्रवृत्तचक्रेणाक्रान्तो राक्षा बलवताऽबलः।
सन्धिनोपनमेत् तूर्ण कोश-दण्डात्मभूमिभिः।" इति फललिप्सयेति-बन्धनादीनि तावन्न योज्यानि । यदि च योज्यन्ते तदा पर्यन्ते विशिष्ट फलमवेक्ष्य, न पुनरेवमेवेति ॥२॥ प्रदेशस्थं चरितं प्रकरी मता' यह 'प्रकरी'का लक्षण है । अर्थात् प्रासङ्गिक किन्तु व्यापक चरित का नाम 'पताका' है जैसे राम-प्रबन्धों में सुग्रीवका चरित्र रामके बाद व्यापक चरित है । प्रतः उसका नायक सुग्रीव 'पताका-नायक' माना जाता है । इसके विपरीत एकदेशस्थ प्रासङ्गिक वृत्तको 'प्रकरी' कहा जाता है जैसे जटायुका वृत्तान्त रामायणमें 'प्रकरी' चरित है। उसका मायक जटायु 'प्रकरी-नायक' है । उसका अभिघात और बध तक भी दिखलाया जा सकता है पौर दिखलाया भी गया है।
[परकृत अभिघातमें भी] 'पर' शब्दसे शत्रुके द्वारा किया गया [मभिधात] ही निषित है। इस लिए नागानन्दमें गड़के द्वारा अभिघात किए हुए [रक्त प्रवाहित होते हुए] जीमूतबाहनके साक्षात्कारसे परोपकारके प्रबल उत्साहके कारण रसको विशेष रूपसे पुष्टि होती है। [इस लिए वह बोषाधायक नहीं है । और हमने भी रघुविलासमें जो छातीमें शक्ति लगे हुए लक्मणका [रङ्गमापर] प्रवेश कराया है वह बोषाधायक नहीं है। क्योंकि सीताके वापस लाने रूप फल सम्बन्धके कारण राम मुख्य [नायक] है। [लक्ष्मण मुख्य-नायक नहीं है । प्रतः उनका मभिधात प्रदर्शित करना दोषाधायक नहीं है। कारिकामें पाए हए] 'बन्ध' [पदका पर्य] दूसरों के द्वारा पकड़ा जाना है। जैसे वासवदत्ताको नृत्यशालामें वत्सराजका [बन्धन दिखलाया गया है वह विशेष फलको सिद्धिका जनक होनेसे दोषाधायक नहीं है] पलायनका अर्थ [युद्धादिसे] हट जाना है। जैसाकि [उसके प्रौचित्यको दिखलानेकेलिए] कहा गया है 'मसमर्थ हो जानेपर सब कुछ छोड़कर चला जावे'। क्योंकि जीवित रहते फिर वापिस पाना देखा जाता है । जैसे सुयात्र पौर उदयनका । [इस लिए जीवन रक्षाके लिए अनिवार्य होनेपर पलायन भी उचित है] । 'सन्धि' अर्थात् मेल कर लेना । जैसाकि [उसका पौचित्य दिखलाते हुए कहा है
[जिसका चक्र चल रहा है उस] प्रभावशाली बलवान् राजाके साथ दुर्बल राजा कोश बण और अपनी भूमि माविके द्वारा सधि कर ले। ..
'फललिप्सया' इसका यह अभिप्राय है कि [स्वमान्यतः] बन्ध प्रालिको योजना नहीं करनी चाहिए किन्तु यदि योजनाको ही जाय तो अन्तमें किसी विशेष फलको देखकर हो की नाय, ऐसे ही नहीं ॥२१॥
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