________________
५० ]
नाट्यदर्पणम् । का० २२, २०१६ अथ विष्कम्भादीनां लक्षणकथनार्थ अङ्कावर्णनीयं विष्कम्भकादिभिर्वर्णनीयमित्याह[त्र १६]-दराध्वयानं पूरोधो राज्य-देशादिविप्लवः ।
रतं मृत्युः समीकादि वण्यं विष्कम्भकादिभिः ॥२२॥ दूरावयानमिति। मुहूर्तत्रिक-चतुष्कसाध्य देशान्तरंगमनं शक्यत्वादऽपि दर्श्यते । यत् पुनरधिककालसाध्यं तदशक्यत्वात् विष्कम्भकादिभिरेव वर्ण्यम् । विश्रान्तिस्थान-शयन-पान-भोजनादीनां बहूनामरञ्जकक्रियाणां प्रसङ्गात् । समवकारादौ तु दूरध्वयानदर्शनेऽपि न दोषः । दिव्यस्य गगनक्रमणसामर्थ्यात् । विष्कम्भकादि-प्रयोग
नाटकादिमें 'दृश्य', 'सूच्य' तथा 'ऊह्य' तीन प्रकारके अर्थ होते हैं इस बासका उल्लेख वृत्तिकार ११ कारिकाके वृत्तिभागमें कर चुके हैं। इनमें से जिन प्रोंको नाटकमें साक्षात् अभिनय द्वारा दिखलाया जाता है वे 'दृश्य' अर्थ कहलाते हैं। नाटकादिका अधिकांश भाग 'दृश्य' ही होता है। उसका नाम ही 'दृश्य काव्य' है। किन्तु कुछ भाग ऐसा भी होता है जिसको अभिनय द्वारा दिखलाना न सम्भव हो सकता है और न कविको प्रभीष्ट हो सकता है। ऐसे अर्थों को कवि अन्य रूपोंमे कहलवाकर सूचितमात्र करता है । उनको 'सूच्य' अर्थ कहते हैं । इन 'सूच्य' अर्थोमे प्रायः दो प्रकारके अर्थ पाते हैं, एक नीरस और दूसरे प्रति विस्तीर्ण एवं अनुपयोगी। रामादिके जीवन के मुख्यभागोंको ही अभिनय द्वारा प्रदर्शित किया जाता है । छोटी-छोटी बातोंको अभिनय द्वारा दिखलानेसे नाटकका बहुत विस्तार हो जायगा इसलिए उन अर्थोको पात्रोंके वार्तालाप द्वारा सूचित कराया जाता है । इसी प्रकार नीरस पर्यकी भी सूचनामात्र दी जाती है । उन अर्थोको 'सूच्य' प्रथं कहते हैं। और उनके लिए नाटकमें पडोंसे भिन्न विशेष भागोंकी रचना की जाती है । उन भागोंका सामान्य नाम 'अर्थोपोपक' है। ये 'अर्थोपक्षेपक' पाँच प्रकारके माने गए हैं । जिनको क्रमशः १. विष्कम्भक, २. प्रवेशक, ३. चूलिका, २. अङ्कास्य, मोर ५. अंकावतार कहते हैं । इन्हींके लक्षण करनेकेलिए प्रन्यकार इन विष्कम्भक मादिके द्वारा सूचनीय अर्थोकी चर्चा इस कारिकामे निम्न प्रकार करते हैं
अब विष्कम्भक प्रादि [पाँच प्रकारके अर्थोपक्षेपकों] के लक्षण करनेकेलिए पड़ों में प्रवर्णनीय [सूच्य-भाग] को विष्कम्भकादिके द्वारा वर्णन [अर्थात् सूचन] करना चाहिए इस बातको कहते हैं
[सूत्र १६]-दूर देशको गमन, नगराबरोष, राज्य तथा देशाविका विप्लव, सम्भोग, मृत्यु, प्रगच्छेद प्रादि [अड़ों में न दिखलाने योग्य प्रों को "विष्कम्भक' प्रादिके द्वारा वर्णन करना चाहिए । २२।
'दूर मार्गका गमन' इसका यह अभिप्राय है कि तीन-चार मुहूर्तमें जिसकी समाप्ति हो सके इस प्रकारका देशान्तर-गमन तो सम्भव होनेसे अमें भी दिखलाया जा सकता है। किन्तु जो अधिक कालमें समाप्त हो वह [अड्डोंमें दिखलानेके] अशक्य होनेसे विष्कम्भक मावि के द्वारा ही परिणत किया जाना चाहिए। क्योंकि उसमें ठहरनेका पड़ाव, शयन, पान, भोजन मावि बहुत-सी परम्मक क्रियामोंका समावेश होगा। समवकार माविमें तो दूर मार्गको यात्राके दिखलानेमें भी दोष नहीं है क्योंकि देवतामोंमें प्राकाम-गमनकी सामर्थ्य होती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org