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________________ ३१२ ] नाट्यदर्पणम् अथास्य भेदानुपदिशति — [ सूत्र १६९ ] - विहासश्चोपहासश्च मध्ये ज्येष्ठे स्मितं हसः । अपहासोऽतिहासश्च नीचे प्रायोऽधमे रसः ॥ [१३] ११५ ॥ [ का० ११५, सू० १६६ तत्र हसनं मधुरस्वरम् । सास्यराग-समयप्राप्तं च विहसितम् । सांसशिरःकम्पमुपहसितम् । एतौ भेदौ मध्यमप्रकृतौ । अलक्षितद्विजं स्मितम् । किचिल्लक्ष्यदन्तं • इसितम् । इमौ भेदौ उत्तमप्रकृतौ । अनवसर प्राप्त साश्रुनेत्रमुत्कम्पितांस-शिरश्चापहसितम् । करोपगूढपार्श्व विक्रुटस्वरमुद्धतं चातिह सितम् । श्रमू भेदावधमप्रकृतौ । एवं षडेते हास्यभेदाः । अयं च हास्यो रसः प्रायो बाहुल्येनाधमप्रकृतौ पामरप्राये भवति । स्ववर्गापेक्षया च स्त्रियाः प्राधान्येऽपि पुरुषापेक्षयाधमतैवेति तस्यामपि । एवं करुण-भयानक-बीभत्स - अद्भुता श्रप्यधमप्रकृतौ भूयस्त्वमनुभवन्ति । पामरप्रायः. सर्व: प्रकर्षेण हसति, शोचति, बिभेति, परनिन्दामाद्रियते, स्वल्पेनापि सुभाषितेन | सर्वत्र विस्मयते इति ।। [१३] ११५ ।। Jain Education International प्र प्रागे इस [ हास्यरसके] भेदोंको दिखलाते हैं [ सूत्र १६६ ] - मध्यम [ प्रकृतिके पात्रों] में [हास्यरसके] विहास और उपहास [रूप दो भेद पाए जाते हैं], उत्तम [श्रेष्ठ प्रकृतिके पात्रों] में स्मित और हास [रूप वो हास्य भेद पाए जाते हैं] श्रर नीच [ प्रकृतिके पात्रों] में प्रपहास तथा प्रतिहास [रूप दो हास्य-भेद पाए जाते हैं] । और यह हास्यरस, प्रायः प्रथम पात्रोंमें पांया जाता है । [१३] ११५ । I [ हास्यके जो छः भेद कारिका में दिखलाए हैं ] उनमेंसे समुचित प्रवसरपर जिसमें गाल लाल हो जाएं इस प्रकारका मधुर स्वरसे हँसना 'विहसित' [कहलाता ] है । कन्धे श्रीर सिर जिसमें हिलने लगें [ इस प्रकारका हँसना ] 'उपहसित' कहलाता है। ये [ विहसित और उपहसित रूप ] दोनों भेद मध्यम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं। जिसमें दांत दिखलाई न दें इस प्रकारका हास्य 'स्मित' [ मुस्कराना ] कहलाता है । और जिसमें दाँत थोड़े-थोड़े बिललाई देने लगे [इस प्रकार का हास्य ] 'हसित' [कहलाता ] है । [स्मित और हसित] ये दोनों भेव उतम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं। बिना अवसरके जिसमें आंखोंमें प्रसू प्रा जाएं कम्बे और सिर हिलने लगें, इस प्रकारका हंसना 'अपहसित' कहलाता है । और हाथोंसे बनको थामकर जोर-जोर से उद्धततापूर्वक हँसना 'प्रतिहास' कहलाता है । [ प्रहसित और हिसित] ये दोनों भेद अधम प्रकृति [के पात्रों] में होते हैं । इस प्रकार हास्यके छः भेद हो जाते हैं। यह हास्यरस अधिकतर प्रथम प्रकृतिके मीच पुरुषोंमें होता है। अपने वर्गकी अपेक्षाले [किसी विशेष ] स्त्रीकी उत्तमता [ प्रधानता ] निवर भी पुरुषों की अपेक्षा उस [ उत्तम स्त्री ] में भी प्रथमता ही होती है इसलिए उन [] में भी हास्यरस अधिकतर पाया जाता है। इसी प्रकार करण, भयानक, प्रभुत तथा बीमा रस भी अधिकतर प्रथम प्रकृति [प्रर्थात् नीच पात्रों] में होते हैं। इसलिए नीच प्रकृति वाले सभी लोग प्रायः जोरसे हंसते, अधिक शोक करते, अधिक डरते और अधिकतर दूसरों की निन्दा करते हैं तथा तनिक-से भी सुभाषितको सुनकर आश्चर्य करने लगते हैं । [ [ [१३] ११५ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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