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________________ १८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० ३६, सू० ४६ श्वत्थाम्नोः कलहेन च दुर्योधनस्य विजयालाभलक्षणं पाण्डववृत्ते फलानुगुणं बीजस्योन्मुख्यम् । तथा ___ "श्राः शक्तिरस्ति वृकोदरस्य मयिं जीवति वत्सस्य छायामायाक्रमिनम्।" इति योद्ध निष्क्रान्तेन दुर्योधनेन विजयान्वेषणरूपं औन्मुख्यम् । तथा "राज्ञो मानधनस्य कामुकभृतो दुर्योधनस्याग्रतः, प्रत्यक्षं कुरुबान्धवस्य मिषतः कर्णस्य शल्यस्य च । पीतं तस्य मयाय पाण्डववधूकेशाम्बराकर्षिणः, कोष्णं जीवत एव तीक्ष्ण करजचण्णादसृग वक्षसः ॥" इत्यादिना भीमसेनेन दुःशासनवधात् विजयलाभरूपमौन्मुख्यम् । एवमत्र पुनःपुनर्लाभालाभगवेषणैर्बीजस्योन्मुख्यम् दर्शितम् । अत एव फलप्राप्तिसम्भावनारूपो गर्भसन्धिरुच्यते। तथा अश्वत्थामाके कलहसे, दुर्योधनको पराजय रूप और पाण्डवोंके पक्षमें फलके अनुकूल बोज का प्रोन्मुल्य [विखलाया गया है] । तथा [चतुर्थ प्रथमें] 'माः! मेरे जीते रहते भीम, वत्स दुःशासनकी छाया तक छूनेको शक्ति नहीं रखता है [यह कहकर ] युद्ध के लिए निकलते हुए दुर्योधनके द्वारा विजयान्वेषण रूप फलोन्मुखता [विखलाई गई हैं] तथा-- ___"अभिमानी और धनुर्धारी राजा दुर्योधनके सामने, कौरव बन्धुनोंके प्रागे, तथा कर्ण एवं शल्यके देखते-देखते प्राज मैंने पाण्डवोंकी बधू [द्रौपवीके] के केश तथा वस्त्रोंका अपहरण करनेवाले उस दुःशासनकी अपने तीक्ष्ण नाखूनों द्वारा फाड़ी गई छातीका गरम-गरम लहू उसके जीते हुए भी पी लिया।" इत्यादि [वाक्य] से भीमसेनके द्वारा दुःशासनके वधसे [पाण्डवोंके] विजयलाभ स्प फलकी उन्मुखता [दिखलाई गई है। इस प्रकार यहाँ विरणीसंहारमें] बार-बार [विजयके] लाभ और अलाभके अनुसंधान द्वारा बोजको [फलके प्रति उन्मुखता दिखलाई गई है। प्रत एव [यह फलकी प्राप्तिको सम्भावना रूप गर्भसंधि कहलाता है। वेणीसंहार वीररस-प्रधान नाटक है। उसमें पाण्डवोंका विजयलाभ मुख्य फल है । प्रथम अङ्कमें उसमें 'लाक्षागृहनलविषान्न' इत्यादि भीमसेनकी उक्तिसे जिस कौरववंशके नाश के बीजका प्रारोपण किया गया था उसका द्वितीय अङ्कमें अधिक उभेद होकर तृतीय चतुर्थ प्रक्षों में उसके प्राप्तिकी आशा हो जाती है। इन अङ्कों में अनेक स्थानोंपर कौरवोंके प्रधानपुरुषोंके वधकी सूचना मिलती है। यह पाण्डवोंकी विजयके अनुकूल जाती है। कहीं-कहीं दुर्योधन आदि कभी अपनी विजयके लिए प्रयत्नशील दिखलाई देते हैं । वह स्थल मुख्य फलकी प्राप्तिमें बाधक प्रतीत होते हैं। सब मिलकर लाभको आशा अधिक रहती है। इसलिए इस भागमें प्राप्त्याशा रूप तृतीयावस्था और गर्भसन्धि रूप तृतीय सन्धिको ही निबद्ध किया गया है। इसी दृष्टिसे ग्रन्थकारने गर्भसन्धिके उदाहरणरूपमें उस भागको प्रस्तुत किया है। यह वीररस प्रधान नाटकमें गर्भसन्धिका प्रदर्शन कराया । इसी प्रकार शृङ्गार-प्रधान नाटकोंमें भी दिखलाया जा सकता है । इसी बातको पागे कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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