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का० ३६, सू० ४७ ]
प्रथमो विवेकः
[
एवं शृङ्गारादिप्रधानेष्वपि रूपकेषु लाभालाभगवेषणानि दर्शनीयानि । इह गर्भसन्धौ अप्राप्त्यंशः प्रधानं फलसम्भावनात्मकत्वात् । अन्यथा फल- निश्चयात्मक एव स्यात् । अत्रमर्शसन्धौ तु प्राप्त्यंशः प्रधानं फलनिश्चयरूपत्वादिति विशेषः । इति ।
श्रथावमर्शमाह -
[ सूत्र ४७ ] - उद्भिन्नसाध्यविघ्नात्मा विमर्शो व्यसनादिभिः ॥ ३६ ॥
बीजस्य उत्पत्ति-उद्घाट- फलोन्मुख्यैरुद्भिन्न भवनाभिमुखं यत् साध्यं प्रधानफलं तद्विघ्नात्मा तत्प्रत्यूहसम्पातात्मा नियताप्तिचतुर्थ्यवस्थापरिच्छिन्नः प्रधानवृत्तांशः, विमृशति बलवदन्तरायहेतुसम्पात प्रत्यासन्नमपि साध्यं प्रति सन्देग्धि नेताऽस्मिन्निति 'विमर्शः' । नियतफलाप्त्यदस्थया व्याप्तत्वेऽप्यस्य सन्धेः सम्भावनानन्तरं सन्देहस्याप्राप्तावपि च फलं प्रति जनक विघातकयोस्तुल्यबलत्वात् सन्देहात्मकत्वम् । 'विघ्नैरपि हन्यमानाश्च महात्मानो विशेषतो यतन्ते' इति तत्त्वतो नियतइसी प्रकार शृङ्गार- प्रधान रूपकोंमें भी [ फलका] लाभालाभके अनुसन्धान दिखलाने
चाहिएं ।
इस गर्भसंधिमें, उसके फलसम्भावना रूप होनेसे प्रप्राप्तिका श्रंश प्रधान रहता है । अन्यथा [गर्भसंधि न रहकर ] फल- निश्चयात्मक [विमर्श-संधि] ही बन जाय । विमर्श -संघिमें प्राप्तिका अंश प्रधान रहता है । क्योंकि वह फल-निश्चय रूप होता है । यह [ गर्भसंधि तथा विमर्श -संघिका ] भेद है ।
४ विमर्श - सन्धि -
अब विमर्श [ सन्धि ] को कहते हैं
[ सूत्र ४७ ] - [ बीजकी उत्पत्ति, उद्घाटन और फलौन्मुख्यके द्वारा ] उभिन्न प्रर्थात् पूर्ण होनेके लिए प्रस्तुत जो साध्य, उसमें व्यसन प्रादिके द्वारा विघ्न-स्वरूप विमर्श [ संधि ] कहलाता है । ३६ ।
[मुख, प्रतिमुख तथा गर्भसंधियों में क्रमशः ] बीजकी उत्पत्ति, उद्घाटन तथा फलोन्मुखताके द्वारा उद्भिन्न अर्थात् [ सफल ] होनेवाला जो साध्य, अर्थात् प्रधान फल, उसका विघ्न-स्वरूप अर्थात् उसमें विघ्नोपनिपात रूपः नियताप्ति नामक चतुर्थी अवस्थासे परिच्छिन्न [ अर्थात् चतुर्थी अवस्थाके उदयके साथ उदय श्रौर उसकी समाप्तिके साथ समाप्त होनेबाला मुख्य कथाका भागको जिसमें कि 'विमृशति' अर्थात् बलवान् विघ्नोंके श्रा जानेसे प्रत्यासन्न फलके प्रति भी नायक सन्देह में पड़ जाता है। इसलिए [ इसी व्युत्पत्तिलभ्य अर्थके काररण] 'विमर्श' [ सन्धि कहा जाता ] है । इस [विमर्श ] सन्धिके नियताप्ति रूप [चतुर्थी] फलावस्थासे व्याप्त होनेपर भी और सम्भावना [प्रर्थात् उत्कट कोटिके निश्चय] के अनन्तर सन्देहका अवसर न होनेपर भी फलके प्रति जनक और उसके विघातक दोनोंके तुल्यबल होने के काररण [विमर्श - सन्धिको] सन्देहात्मकता होती है। और [सन्देहात्मकता होते हुए भी ] 'fबहनोंसे बार-बार बाधित होनेपर भी. महापुरुष और अधिक यत्न [ फल प्राप्तिके लिए ] करते हैं' इसलिए वास्तव में वह नियताप्ति रूप ही होता है । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भले कार्यों में अनेक विघ्न होते ही हैं। इसलिए विघ्नके काररणोंके उपस्थित होनेपर भी समीपवर्ती
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