SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 217
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०० ] नाट्यदर्पणम् [ का० ३६, सू० ४७ फलाप्तिरूपत्वम् । 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि भवन्ति' इति विघ्नहेतुसम्पातेऽपि, प्रत्यासन्नवर्तिनि फले न निवर्तनीयमिति च व्युत्पादयितुमवश्यमत्र सन्धौ विघ्नtaat निबन्धनीयाः । 'व्यसनादिभिः' इति श्रादिशब्दात् शापादिपरिग्रहः । तत्र व्यसनाद्विघ्नो यथा रामाभ्युदये पञ्चमेऽङ्के । रामः"प्रत्याख्यानरुषः कृतं समुचितं क्रूरेण ते रक्षसा, सोढं तच्च तथा त्वया कुलजनो धत्ते यथोच्चैः शिरः । व्यर्थं सम्प्रति विभ्रता धनुरिदं त्वव्यापदः साक्षिणा, रामेण प्रियजीवितेन तु कृतं प्रेम्णः प्रिये ! नोचितम् ॥” अत्र रावणेन यन्मायारूपसीताव्यापादनं तद्रूपेण व्यसनेन सीताप्राप्तिविघ्नजो विमर्शः । यथा वा रघुविलासे षष्ठेऽङ्के । लक्ष्मणः "नाकीर्णा दशकन्धरी पलभुजां पत्युः शितैः पत्रिभिः, दत्ता नापि विभीषणाय सुहृदे लङ्काधिपत्यस्थितिः । वैदेही विरहाग्निमग्नमनसो नार्यस्य सन्दर्शिता, जात जन्म वृथा हद्दा ! रणधुराधौरेय दोष्णो मम ।।" [ फल] की प्राप्तिसे निवृत्त नहीं होना चाहिए [कितने ही विघ्न प्रायें अपने प्रयत्नको नहीं छोड़ना चाहिए] इस बातकी शिक्षा [ सामाजिकोंको] वेनेकेलिए [विमशं] सन्धिमें विघ्नोंके कारणोंको अवश्य प्रदर्शित करना चाहिए। [ कारिकामें पर हुए ] 'व्यसनाविभि:' में आदि शब्दसे शापादिका ग्रहण करना चाहिए । [अर्थात् प्रत्यासन्न फलको सिद्धिमें जो विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं उसके व्यसन अर्थात् क्लेश या शापादि अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें किसी भी कारणसे विघ्नोंकी उपस्थिति दिखलाई जा सकती है] । उनमें से संकट [ व्यसन] के कारण विघ्न [की उपस्थितिका उदाहरण] जैसे रामाम्युदयमें पञ्चम में । राम [कहते हैं कि ] - 'निर्वयो राक्षस [रावरण] ने प्रत्याख्यान [अर्थात् उसकी प्रार्थनाको अस्वीकार ] कर वेनेसे उत्पन्न क्रोधके कारण तुम्हारे साथ उचित ही [व्यवहार] किया [श्रर्थात् रावणने तुम्हारे इन्कार कर देनेपर तुम्हारे साथ जो व्यवहार किया वह उसके क्रोधके अनुरूप ही था ] | और तुमने भी उस [ अत्याचार] को इस प्रकारसे सहन किया जिससे उच्च कुलकी स्त्रियाँ प्राज भी गर्वसे मस्तक ऊँचा करती हैं । किन्तु तुम्हारी विपत्तियोंको साक्षीरूपसे देखनेवाले [ और उसका प्रतिकार न करनेके काररण] व्यर्थ ही धनुर्धारण करनेवाले अपने जीवनके लोभी रामने हे प्रिये ! अपने प्रमके अनुरूप कार्य नहीं किया । यहाँ रावणके द्वारा बनावटी सीताको जो मार डाला गया था उस व्यसनसे सीताकी प्राप्ति में विघ्न प्रा पड़नेसे यह व्यसन जन्य विमर्श [ संधि ] है । प्रथवा जैसे रघुविलासके छठे प्रमे । लक्ष्मण [ कह रहे हैं ] " [ मैं लक्ष्मरण] राक्षसराज [पलभुजां पत्युः ] के दश शिरोंके समुदायको तीक्ष्ण वारणोंके द्वारा काटकर गिरा नहीं पाया, न मित्रवर विभीषरणको लङ्काके राजाका पद दिला पाया और न विरहाग्निसे संतप्त मनवाले प्रार्य रामचन्द्रको वैदेहीका दर्शन ही करा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy