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________________ ( arer पीरप्रशास शेष नोटकवत, ## ) धर्मकामायें तत्परम् । सन्धि प्रवेशकरसादिकम् i वशरूपक ३-३९, ४०j इस लक्षण के अनुसार 'प्रकरण' में धीरप्रशान्त स्वभाव वाले अमात्य, विप्र या after में से किसी एक को नायक बनाना चाहिए यह प्रयं निकलता है । किन्तु नाटघदर्पणकार इस बात से सहमत नहीं है। उनके मत में प्रमात्थ के साथ धीरप्रशान्त विशेषरण संगत नहीं होता है। प्रथम विवेक की सातवीं कारिका में वे पहिले ही लिख चुके है कि 'धीरोदात्तः संन्येधमन्त्रिरण : ' सेनापति धौर भ्रमात्य धीरोदात ही होते हैं। अर्थात् भ्रमात्य सदा धीरोदात्त होना चाहिए | 'श्रीरशान्ता वरिणविप्राः' वणिक् और वित्र तो धीरशान्त होते हैं, किन्तु धमात्य धीरप्रशान्त नहीं धीरोदात्त होता है। इसलिए दशरूपककार ने जो अमात्य को 'प्रकरण' का तश्यक मान कर 'वीरशान्त' उसका विशेषण दिया है वह उचित नहीं है। इसी बात को नाट्यदर्पण कार ने निम्न प्रकार लिखा है "सचिव राज्यचिन्तकः । प्रयं वणिग्-विप्रयोर्मध्यपात्यपि धीरोदात्त - धीरप्रशान्ती करणे नेतारौ भवतः इति प्रतिपादनार्थं पृथगुपातः । यस्त्वमात्यं नेतारमभ्युपगम्य धीरप्रशान्तंनायकमिति प्रकरणं विशेषयति, स वृद्धसम्प्रदायवन्ध्यः ।" [ नाट्यदर्पण २ - १] सचिव अर्थात् अमात्य राज्य का चिन्तक प्रर्थात् प्रबन्ध करने वाला होता है । यद्यपि विप्र तथा दणिक् के भीतर ही इस अमात्य का भी प्रन्तर्भाव हो सकता है अर्थात् विप्र या वरिणक् मैं से ही कोई अमात्य होता है। इसलिए यदि उसका अलग ग्रहण न किया जाता तो भी काम चल सकता था। फिर भी उसका मलग ग्रहण इसलिए किया गया है कि अमात्य धीरोदात्त होता है और वणिक् विप्र दोनों धीरप्रशान्त होते हैं। इसलिए श्रमात्य के पृथग् ग्रहण से यह अभिप्राय निकला कि प्रकरण में धीरोदास तथा धीरप्रशान्त दोनों प्रकार नायक हो सकते हूँ । इस दशा में दशरूपककार ने 'प्रकरण' में अमात्य को नायक मानते हुए मा जो 'धीरप्रशान्स' विशेषण द्वारा 'प्रकरण' में 'धीरप्रशान्त' के ही नायक होने का प्रतिपादन किया है, वह उचित नहीं है। Jain Education International इन दो स्थलों पर तो नाट्यदर्पणकार ने दशरूपककार के मत की आलोचना की है । किन्तु इनके अतिरिक्त प्रायः ११ स्थल ऐसे हैं जिनमें मुख सन्धि आदि के श्रङ्गों के लक्षणों में नाट्यदर्पण तथा दशरूपक में भेद पाया जाता है । नाट्यदर्पणकार ने ऐसे स्थलों पर अपना लक्षण देने के बाद 'प्रन्ये' आदि पदों से दशरूपक के लक्षण भी दिखा दिए हैं। इन ११ स्थलों को हम नीचे दे रहे हैं । १. मुख सन्धि के पञ्चम भङ्ग 'उद्भ ेद' का लक्षण नाट्यदर्पण में 'स्वल्पप्ररोहउद्भेद:' किया गया है [का० १-४३ ] । दशरूपक में उसके स्थान पर 'उभेदो गूढभेदनम् ' [देश० १०:९] किया गया है । नाट्यदर्पण की विवृति में इसी का उल्लेख 'अन्ये तु गूढ भेदनमुभेदमामनन्ति' इस प्रकार किया गया है । २. नाट्यदर्पण में मुख सन्धि का आठवां प्रङ्ग भेदन माना गया है । उसका लक्षण 'भेदनं पात्र निर्गम:' [का० १-४४] किया गया है। दशरूपक में उसका लक्षण 'भेदः प्रोत्साहना मता' [ का० १- २९ ] इस प्रकार किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु भेदं प्रोत्साहनमाहुः' For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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