________________
( २४ ) लिल कर इसी भेद को दर्शाया है। इसी प्रसङ्ग में नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु संहतानां प्रतिपक्षाणां बीजफलोत्पत्तिनिरोधकानां विश्लेषकं भेदरूपमुपायं भेदनं मन्यन्ते' इस रूप में भेद के तुतीय लक्षण का भी उल्लेख किया है ।
मुख सन्धि के इन दो मङ्गों के लक्षणों के विषय में रामचन्द्र तथा धनन्जय का मतभेद है। मागे 'प्रतिमुख सन्धि' के मङ्गों के विषय में दोनों का मतभेद दिखलाते है।
३. 'प्रतिमुख सन्धि' का पांचवां भङ्ग 'वणंसंहृति' है। उसका लक्षण नाट्यदर्पण में 'पात्रोषो वर्णसंहतिः' [फा० १४८] किया गया है। दशरूपक में उसके स्थान पर 'चातु
योपगमनं वर्णसंहार इष्यते' [१-३५] यह लक्षण किया है । नाट्यदर्पणकार ने इसी भेद को 'अन्ये तु वर्णानां ब्राह्मणादीनां द्वयोस्त्रयाणां चतुणा वा एकत्र मीलनं वर्णसंहारमाचक्षते' इस प्रकार दिखलाया है।
४. 'प्रतिमुख सन्धि' का सातवां मन 'नर्मद्युति' है । इसका लक्षण नाट्यदर्पण में 'दोषावृतो तु तद्युतिः', [का० ४६] किया है । दशरूपक में उसके स्थान पर 'परिहासवचो नर्म, वृतिस्तज्जा द्युतिर्मता' [का० १-३३] यह लक्षण किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने अन्ये तु नर्मबां पुति चुतिमाहुः' इन शब्दों में इस भेद को दिखलाया है।
५. 'गर्भ सन्धि' का तीसरा अङ्ग 'रूप' है। उसका लक्षण 'नाट्यदर्पणकार ने 'पं नानार्थसंशयः' किया है । दशरूपक में 'रूपं वितकंवद् वाक्यम्' यह 'रूप' का लक्षण किया गया है । नाट्यदर्पणकार ने 'अन्ये त्वधीयते रूपं वितर्कवद् वाक्यम् इति' [पृष्ठ १४७] इस स्प इस भेद को प्रदर्शित किया है। इसी प्रसङ्ग में 'मन्ये तु चित्रार्थ रूपकं वचः' [पृष्ठ १४८] इन शब्दों में किसी तीसरे लक्षण का भी उल्लेख किया है ।
६. गर्भ सन्धि' का छठा पङ्ग 'क्रम' है। नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'मो भावस्य निर्णयः [का० १-५४] किया गया है । दशरूपक में 'क्रमः संचिन्त्यमानाप्तिः' [-] यह
म का लक्षण किया गया है ! नाट्यदर्पणकार ने 'क्रमः संचिन्त्यमानाप्तिः इत्याहुः' लिखकर इस भेद को दिखलाया है । 'अन्ये तु भविष्य दर्थतत्त्वोपलब्धि क्रममिच्छन्ति' इन शब्दों में कम का तीसरा लक्षण नी नाट्यदर्पणकार ने दिखलाया है।
७. 'अवमर्श सन्धि का पांचवा मग 'छादन' है । नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'छादनं मन्युमार्जनम् [का० १-५८] किया गया है। दशरूपक में 'छादन' के स्थान 'छलन' मङ्ग पाया गया है। नाट्यदर्पणकार ने इसका उल्लेख 'मध्ये त्यस्य स्थाने छलनं अवमाननरूपमाहः' इन शब्दों में किया है । इसके अतिरिक्त (१) 'मन्ये तु कार्यार्थमसमस्याप्यर्थस्य सहनं छापनमिच्छन्ति ।' (२) 'अपरे तु छलनं सम्मोहमिच्छन्ति' इस रूप में छादन प्रङ्ग के विषय में दो मतों का उल्लेख [पृ० १६६] पोर किया है ।
८. 'अवमर्श सन्धि' का छठा प्रङ्ग 'पुति' है । नाट्यदर्पण में उसका लक्षण 'तिरस्कारो द्युतिः' (का० ५९] किया गया है। दशरूपक में 'तर्जनोद्वेजने द्युतिः' [१-४६] इस प्रकार 'धुति' का लक्षण किया है । इस मन्तर का उल्लेख करते हुए नाट्यदर्पण में लिखा है'तर्जनोजनं द्युति केचिदिच्छन्ति' इसके साथ ही 'अपरे तु तर्जनाधर्षणे युति मन्यन्ते' इस रूप में 'अति' के तीसरे लक्षण का भी उल्लेख नाट्यदर्पणकार ने किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org