SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २५ । ६. 'भवमर्श सन्धि' का रशम मा 'शक्ति' है। उसका लक्षण नाट्य दर्पण में - प्रसादनं शक्तिः' [का० ६०] पोर दशल्पक में विरोषशमनं शक्ति:' [१-४६] किया गया है। ट्यदर्पणकार ने 'एके तु विरोष थमनं शक्तिमिच्छन्ति' लिख कर इस भेद का उल्लेख किया है। १०. अवमर्श सन्धि का १३वा अङ्ग 'व्यवसाय' है। नाट्यदर्पण में उसका लक्षण मवसायोऽध्यहेतुयुक्' [का० ६०] और दशरूपक में 'व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः' [का० १.५०] किया है। नाट्यदर्पणकार ने 'मन्ये तु व्यवसायः स्वशक्त्युक्तिः इति पठन्ति' लिख कर इस मेर का प्रदर्शन किया है। ११. निर्वहण सन्धि' का पांचवां पङ्ग परिभाषण है। नाट्यदर्पण में उसका शक्षण परिभाषास्वनिन्दनम्' [का० १-६३] मोर दशरूपक में परिभाषा मिथोजल्पः' [१-५२] किया गया है। नाट्यदर्पणकार ने इस भेद को 'एके तु परिभाषा मियोजल्पः इति पठन्ति' लिख कर इस भेद का उल्लेख किया है । रामचन्द्र पौर सागरगम्बी रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्ववर्ती नाट्यलक्षणकारों में दशरूपककार धनञ्जय [सन् ९७४९९५] के बाद दूसरा नाम 'नाटकलक्षणरत्नकोश' के निर्माता 'सागरनन्दी' का पाता है। ये दोनों मम्मट के उत्तरवर्ती प्राचार्य है । सागरनन्दी ने धनञ्जय से लगभग १०० वर्ष बाद अपने 'भाटकलक्षणरत्नकोश' नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की है। इनका असली नाम तो केवल 'सागर' था किन्तु नन्दवंश में उत्पन्न होने के कारण वे 'सागरनन्दी' नाम से ही प्रसिद्ध है। इनका 'नाटकलक्षणरत्नकोश' ग्रन्थ, जैसा कि उसके नाम से ही स्पष्ट है, नाट्यशास्त्र विषयक अन्य है। रामचन्द्र-गुणचन्द्र को सम्भवत: इस प्रन्थ का भी पूर्ण परिचय प्राप्त था। धनन्जय के समान सागरनन्दी से भी रामबन्द-पुणचन्द्र का अनेक स्थलों पर मत भेद पाया जाता है । नाट्यदर्पण में जिस प्रकार नाटक की पांचों राधियों के विविध प्रङ्गों के लक्षण करते समय जहाँ कहीं दशरूपक के मझरण भेद पाया है वहाँ 'मन्ये' प्रादि शब्दों से दशरूपक के लक्षण को भी उड़त कर दिया है। इसी प्रकार १२वें रूपक भेद 'वीथी' के मङ्गों का विवेचन करते हुए जहां उनके लक्षण से मित्र अन्य लक्षण भी पाए जाते है, वहां 'मन्ये मादि शब्दों में उन लक्षणों का उल्लेख कर दिया है। यह उल्लेख दशल्पक से सम्बद्ध प्रतीत नहीं होता है । क्योंकि दशरूपक में 'वीथी' के प्रमों का विवेचन ही नहीं किया गया है । दशरूपककार ने तृतीय प्रकाश के अन्त में केवल ६८, ६६ दो कारिकामों में 'बीपी' का लक्षण मात्र कर दिया है । उसके अङ्गों का विवेचन नहीं किया किया है। माट्यदर्पणकार ने 'बीपी' के लक्षण के अतिरिक्त उसके १३ अङ्गों का उदाहरणों बहित विस्तृत विवेचन किया है। और उसमें अपने से भिन्न अन्य लक्षणों का भी उल्लेख किया है । समसळप के नहीं है इसलिए ऐसा भनुमान है कि सम्भवतः ये 'नाटकलक्षणरत्नकोश' रामन और मम्बट १. काव्यप्रकाशकार मम्मट रामचन्द्र-गुणचन्द्र के पूर्ववर्ती प्राचार्य है । पर उन्होंने अहोभाटवनमाण सम्बन्धी कोई प्राथमिक्षा है मोर न काव्यप्रकाश में ही नाटक-सम्बन्धी किसी विसकी विवेजना की है, इसलिए नाट्यदर्पण का मम्मट के साथ कोई विशेष सम्बन्ध प्रतीत किन्तु रसदोषों का विवेचन दोनों ने किया है । इसलिए इस अंश में दोनों का स Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy