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________________ समान्य है। इस प्रसङ्ग में एक स्थल पर नाट्यदर्पणकारकाम्यप्रकाशकार के मतका सन्न किया है। रस-दोषों में मज मर्याद प्रधान रस का अधिक विस्तार करना दोष माना गया है। काव्यप्रकाश में इसे 'मास्याप्यतिविस्तृति' [सप्तम उल्लास सूत्र ५२, १०१से माम में पौर नाट्यदर्पण मैं इसे 'मङ्गोम्बू' [का...२१] नाम से कहा गया है। काव्यप्रकाशकार ने 'मङ्गस्य मप्रधानस्य, पति विस्तरेण वर्णने यया हयग्रीवव हवग्रीवस्य [.३६२ भानमन से प्रकाशित संस्करण] सिल कर प्रतिनायक सय ग्रीव के प्रति विस्तृत वर्णन को इसके उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया है। किन्तु नाट्यदर्पणकार इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं है। उन्होंने इसका खण्डन करते हुए इसे 'वृत्त-दोष' अर्थात् कपा-माग का दोष मात्र कहा है, रसदोष नहीं । रस की दृष्टि से तो उनके मत में यह दोष न होकर पूण है। प्रतिपक्षी का अत्यन्त उत्कर्ष दिखला कर नायक द्वारा उसका वध कराने में तो नायक का उत्कर्ष बढ़ता ही है, इसलिए उस दृष्टि से यह दोष नहीं अपितु गुण ही है, यह नाट्यदर्पणकारका अभिप्राय है। अपने इस मत का प्रतिपादन उन्होंने इस प्रकार किया है "केचित्र हयग्रीव हयग्रीववर्णनमुवाहरन्ति । स पुनर्व तदोषो वृत्तनायकस्याल्पवर्णनात् । तत्र हि वीरो रसः, स विशेषतो वष्यस्य शौर्य-विभूत्यतिशयवर्णनेन मूष्यत इति ।" [ना०६०३-२१] इसके स्थान पर उन्होंने कृत्यारावण का उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है "भयाजोग्यम् । पास्प मुस्यरसपोषकतया अवयवभूतस्योग्य विस्तरेणोत्कटत्वं दोषः। यथा कृत्यारावणे जटायुवष-सक्ष्मणशक्तिमेद-सीताविपत्तिश्रवणेषु रामस्य मुहहः करणाषिक्यम् ।" ना. ६०३-२३] २. प्रतिकूल-विभावादिग्रह' नाम का दूसरा रस-दोष है। काव्यप्रकाश में इसका उदाहरण निम्न प्रकार दिया गया है "प्रसादे वर्तस्व, प्रकटय मुदं, संत्या रुषं प्रिये शुष्यन्त्यङ्गान्य सूतमिव ते सिंचतु पयः । निधानं सौख्यानो क्षणभिमुखं स्थापय मुखं र मुग्धे प्रत्येतु प्रभवति गतः कालहरिणः।। मथ शृङ्गारे प्रस्कूिलस्य शान्तस्यानित्यताप्रकाशनरूपो विमावस्तरप्रकाशितो निवरण व्यभिचारी उपात्तः ॥" का० पृ. ३६० पति इस इलोक में शृङ्गार रस के प्रतिकूल शान्त रस का तथा उसके प्रतिस्पताक्यापनात्मक निर्वेदरूप व्यभिचारिभाव का ग्रहण होने से यहाँ प्रतिकूलविभावारि परिवह रूप रस दोष होता है। नाट्यदर्पणकारने इस उदाहरण को किसी प्रकार की मालोचना न करते हुए भी इसका दूसरा उदाहरण निम्न प्रकार दिया है त्यजत मानमर्स त विग्रह पुनरेति गतं पतुरंपा । परभूताभिारतीय निवेदिते, स्मरमते रमते स्म वधूजनः॥ मा शृङ्गारप्रति लस्य शाम्सस्यानित्यता प्रकासनस्पो विभागो मिबहः। [मा..-२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001892
Book TitleNatyadarpan Hindi
Original Sutra AuthorRamchandra Gunchandra
AuthorDashrath Oza, Satyadev Chaudhary
PublisherHindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
Publication Year1990
Total Pages554
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Literature
File Size9 MB
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